मर्दानगी!एक शब्द जो पुरी कहानी कह देता है।कम से कम प्रभाष परंपरा न्यास के मामले मे तो यही नज़र आ रहा है।प्रभाष जी के नाम को भगवा रंग मे रंगने की कोशिशों का विरोध करने वाले साथी आलोक तोमर के लिये तो मर्दानगी पर्यायवाची नज़र आता है मगर उनके विरोध का विरोध करने वाले न्यासी के चमचे के मामले मे नही।आलोक तोमर प्रभाष जी की परंपरा का निर्वाह करने मे आज भी पीछे नही रहे।वे एक साथ दो बड़े भगवा नेता और उनसे कंही ज्यादा और कई हज़ार गुना ताक़तवर कैंसर से एक साथ लड पड़े।झुकना उन्होने सीखा नही था और गलत उन्हे बर्दाश्त नही था।सो मुंह खोल दिया था।मगर पूरी दमदारी से और पूरी मर्दानगी के साथ।मगर उसका जिस तरीके से प्रभाष परंपरा न्यास के एक न्यासी के चमचे ने विरोध किया उसे कम से कम मर्दानगी तो नही कहा जा सकता।
आप खुद ही सोचिये कैंसर से जूझ रहा कोई योद्धा किसी अन्याय के खिलाफ़ तब मैदान पर उतरे जब सब खामोश हो तो शायद सब के मन मे उसके लिये श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़े।और अगर कर्ण जैसी मज़बूरी की वज़ह से भी आपको उसका मुक़ाबला करना पड़े तो भी आप दुःशासन या दुर्योधन की भांति उसकी पत्नी पर कटाक्ष करके अपनी बहादुरी या मर्दानगी नही दिखायेंगे।मगर ऐसा किया प्रभाष जी के नाम को भगवा रंग से रंगने की कोशिश करने वाले देश के दो सबसे बड़े फ़ेल्वर भगवा नेताओं के समर्थक एक न्यासी के चमचे ने।अब इसे आप क्या कहेंगे?पहले ही कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर ने तो उनका जवाब देना भी ज़रूरी नही समझा और आदरणीय भाभीजी ने भी खामोश रहना ज्यादा उचित समझा मगर जुझारू अंबरीश जी से शायद ये बर्दाश्त नही हुआ और हो भी नही सकता था,सो वे सामने आ गये शिखण्डियों की पूरी जमात से लड़ने।और लड़ते हुये तो हमने भी उन्हे देखा था।तब,जब पत्रकारिता को विज्ञापनों के दम पर कुचलने की कोशिश मे सरकार लगभग सफ़ल होती नज़र आ रही थी तब अंबरीश जी ने सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया था।न झुके और ना समझौता किया।मुझे उनका साथी होने पर गर्व है ।मैं,राजकुमार सोनी और संजीत त्रिपाठी आज भी उनकी परंपरा को कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं।और इस संघर्ष मे भी हम उनके साथ हैं।चाहे हमे शिखण्डियों से ही क्यों ना लड़ना पड़े,हम पीछे नही हटेंगे और कैंसर से जूझ रहे साथी आलोक तोमर के जायज विरोध का नाजायज विरोध करने वालों को छोडेंगे नही।
15 comments:
यही जज्बा होना चाहिये.
दुखद प्रकरण, आलेक जी को हम सब की दुआ लगे वो जल्द से जल्द ठीक हो।
हर हालत में अन्याय और बेईमानों का मुकाबला होना ही चाहिए !
शुभकामनायें
आलोक जी जल्दी से ठीक हों, यही शुभकामनायें हैं.
हर हाल में अपनी आवाज बुलंद की जाते रहना चाहिए.....
बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद
पूरा मामला समझ में नहीं आया
क्या हुआ है? इस मुद्दे से दूर हूं इसलिये ज्यादा नहीं जानता
आप ने हौसला बढ़ा दिया .मामला किसी विचारधारा का नही है मै वामपंथी नही हूँ समाजवादी हूँ पर जब कोई बड़ा सार्वजनिक काम करने जाता हूँ तो सभी धाराओं जिसमे वामपंथी से लेकर संघ के लोग भी शामिल होते है सबका साथ रहता है .प्रभाष जी खुद हर विचारधारा के लोगो का साथ लेकर अखबार का एक अलग चरित्र बनाया .हम लोगो ने जन छत्तीसगढ़ में जनसत्ता शुरू किया तो नए लड़के लड़कियों खासकर पिछड़ी जाति आदवासी सभी लोगो को रखा .हमारी महासमुंद की संवादाता शिखा पर जानलेवा हमला तक हुआ .
अरविंद के सुझाव पर गौर करे .
अंबरीश
अब बड़ी लकीर खींची जाए
अरविंद उप्रेती
प्रभाष जोशी के बनाए जनसत्ता को आज भी बदले हुए हालत में हम लोग निकाल रहे है .आलोचना करना बहुत आसान होता है और कुछ कर दिखाना बहुत मुश्किल .फिर भी यह सही है कि बहुत से साथी आज भी इस मशाल को जलाए हुए है .प्रभाष जोशी परंपरा न्यास को लेकर हुए विवाद और फ़ालतू की बहस के बाद मैंने साथी अंबरीश कुमार से यही कहा कि फिर बड़ी लकीर खींच दो जो काम वे पहले भी कर चुके है .प्रभाष जोशी खुद एक जिम्मेदारी अंबरीश को पिछले साल जुलाई में दे चुके है वह था जनसत्ता और देश भर में इससे जुड़े पत्रकारों की जानकारी देने वाली पुस्तक का प्रकाशन .इसका शीर्षक खुद प्रभाष जोशी ने दिया और आधा काम हो भी चुका है .इसे जल्द पूरा कर प्रकाशित करवाना अंबरीश कुमार की जिम्मेदारी है . पिछली बार अंबरीश के साथ प्रभाष जी से जब मिले रथे तो दो अन्य मुद्दों पर बात हुई थी जो प्रभाष जी करना चाहते थे जिसमे एक देश के अख़बारों का एक संग्रहालय बनाना और दूसरा भाषा को लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में वर्कशाप करना .संग्रहालय के लिए अंबरीश ने चेन्नई में जयप्रकाश नारायण की पत्नी के नाम बने प्रभावती देवी ट्रस्ट के लोगों से बात भी कर ली थी और वे चेन्नई शहर के बीच बड़ी जगह उपलब्ध करने को तैयार भी थे .पर बाद में इसे भोपाल में बनाने की बात हुई .पर दूसरा काम यानी पत्रकारिता की भाषा को लेकर वर्कशाप करने का काम शुरू किया जाना चाहिए .शुरुवात छत्तीसगढ़ से हो जहा अंबरीश कुमार के शुरू किए जनसत्ता की टीम अभी भी सक्रिय है .अनिल पुसदकर ,राजकुमार सोनी ,भारती ,संजीत आदि को इसमे मदद करनी चाहिए .इसके बाद मध्य प्रदेश में आलोक तोमर तो उत्तर प्रदेश में सत्य प्रकाश त्रिपाठी मदद कर सकते है .यह एक बड़ा काम होगा .
इसके आलावा पत्रकारों की सामाजिक सुरक्षा को लेकर अंबरीश केंद्र सरकार की तरफ से गठित वेज बोर्ड पर दबाव बनाने में मदद करे और इसमे असंगठित पत्रकारों का सवाल भी जोड़े .जिलो जिलो में काम करने वाले ज्यादातर पत्रकारों का न तो वेतन मिलता है और न ही कोई खास सुविधा .अनहोनी होने पर कोई मदद को भी सामने नहीं आता .ऐसी स्थिति कई छोटे अख़बारों के पत्रकारों की भी है .
ऐसे में हम लोगों को इस विवाद को विराम देते हुए और बड़ी लकीर खींचनी चाहिए .
(नोट - अरविंद उप्रेती जनसत्ता की शुरुवाती टीम से है . इस समय दिल्ली जनसत्ता में उप समाचार संपादक और इंडियन एक्सप्रेस एम्प्लाइज यूनियन के अध्यक्ष है .इन्होने ने ही अंबरीश कुमार को जनसत्ता में ज्वाइन कराया था .जब अंबरीश कुमार ने छत्तीसगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस ब्यूरो संभाला तो छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार रम्मू श्रीवास्तव और बब्बन प्रसाद मिश्र से मिलवाने उनके साथ गए थे जिनके साथ अरविंद ने जबलपुर में काम किया था .)
आप ने हौसला बढ़ा दिया .मामला किसी विचारधारा का नही है मै वामपंथी नही हूँ समाजवादी हूँ पर जब कोई बड़ा सार्वजनिक काम करने जाता हूँ तो सभी धाराओं जिसमे वामपंथी से लेकर संघ के लोग भी शामिल होते है सबका साथ रहता है .प्रभाष जी खुद हर विचारधारा के लोगो का साथ लेकर अखबार का एक अलग चरित्र बनाया .हम लोगो ने जन छत्तीसगढ़ में जनसत्ता शुरू किया तो नए लड़के लड़कियों खासकर पिछड़ी जाति आदवासी सभी लोगो को रखा .हमारी महासमुंद की संवादाता शिखा पर जानलेवा हमला तक हुआ .
अरविंद के सुझाव पर गौर करे .
अंबरीश
अब बड़ी लकीर खींची जाए
अरविंद उप्रेती
प्रभाष जोशी के बनाए जनसत्ता को आज भी बदले हुए हालत में हम लोग निकाल रहे है .आलोचना करना बहुत आसान होता है और कुछ कर दिखाना बहुत मुश्किल .फिर भी यह सही है कि बहुत से साथी आज भी इस मशाल को जलाए हुए है .प्रभाष जोशी परंपरा न्यास को लेकर हुए विवाद और फ़ालतू की बहस के बाद मैंने साथी अंबरीश कुमार से यही कहा कि फिर बड़ी लकीर खींच दो जो काम वे पहले भी कर चुके है .प्रभाष जोशी खुद एक जिम्मेदारी अंबरीश को पिछले साल जुलाई में दे चुके है वह था जनसत्ता और देश भर में इससे जुड़े पत्रकारों की जानकारी देने वाली पुस्तक का प्रकाशन .इसका शीर्षक खुद प्रभाष जोशी ने दिया और आधा काम हो भी चुका है .इसे जल्द पूरा कर प्रकाशित करवाना अंबरीश कुमार की जिम्मेदारी है . पिछली बार अंबरीश के साथ प्रभाष जी से जब मिले रथे तो दो अन्य मुद्दों पर बात हुई थी जो प्रभाष जी करना चाहते थे जिसमे एक देश के अख़बारों का एक संग्रहालय बनाना और दूसरा भाषा को लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में वर्कशाप करना .संग्रहालय के लिए अंबरीश ने चेन्नई में जयप्रकाश नारायण की पत्नी के नाम बने प्रभावती देवी ट्रस्ट के लोगों से बात भी कर ली थी और वे चेन्नई शहर के बीच बड़ी जगह उपलब्ध करने को तैयार भी थे .पर बाद में इसे भोपाल में बनाने की बात हुई .पर दूसरा काम यानी पत्रकारिता की भाषा को लेकर वर्कशाप करने का काम शुरू किया जाना चाहिए .शुरुवात छत्तीसगढ़ से हो जहा अंबरीश कुमार के शुरू किए जनसत्ता की टीम अभी भी सक्रिय है .अनिल पुसदकर ,राजकुमार सोनी ,भारती ,संजीत आदि को इसमे मदद करनी चाहिए .इसके बाद मध्य प्रदेश में आलोक तोमर तो उत्तर प्रदेश में सत्य प्रकाश त्रिपाठी मदद कर सकते है .यह एक बड़ा काम होगा .
इसके आलावा पत्रकारों की सामाजिक सुरक्षा को लेकर अंबरीश केंद्र सरकार की तरफ से गठित वेज बोर्ड पर दबाव बनाने में मदद करे और इसमे असंगठित पत्रकारों का सवाल भी जोड़े .जिलो जिलो में काम करने वाले ज्यादातर पत्रकारों का न तो वेतन मिलता है और न ही कोई खास सुविधा .अनहोनी होने पर कोई मदद को भी सामने नहीं आता .ऐसी स्थिति कई छोटे अख़बारों के पत्रकारों की भी है .
ऐसे में हम लोगों को इस विवाद को विराम देते हुए और बड़ी लकीर खींचनी चाहिए .
(नोट - अरविंद उप्रेती जनसत्ता की शुरुवाती टीम से है . इस समय दिल्ली जनसत्ता में उप समाचार संपादक और इंडियन एक्सप्रेस एम्प्लाइज यूनियन के अध्यक्ष है .इन्होने ने ही अंबरीश कुमार को जनसत्ता में ज्वाइन कराया था .जब अंबरीश कुमार ने छत्तीसगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस ब्यूरो संभाला तो छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार रम्मू श्रीवास्तव और बब्बन प्रसाद मिश्र से मिलवाने उनके साथ गए थे जिनके साथ अरविंद ने जबलपुर में काम किया था .)
इसी प्रकार के जज्बे और क़ुरबानी की जरूरत है आज ,टुच्चे लोगों के टुच्चे आरोपों से डरकर हम लड़ना छोड़ देते है ऐसा नहीं होना चाहिए कोई आरोप पत्नी पे लगाये या बच्चों पे सत्य और न्याय का साथ किसी भी हालत में नहीं छोरना चाहिए |
हर हाल में अपनी आवाज बुलंद की जाते रहना चाहिए....
अरविंद जी की सलाह सर आंखो पर्।
शुभकामनायें
आलोक जी जल्दी से ठीक हों, यही शुभकामनायें हैं.
जियो!
साँसें तो बहुत से जानवर लेते हैं।
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