Wednesday, September 29, 2010

"रामनामी" इन्हे ना राम चाहिये ना राममंदिर,इनके तो रोम-रोम मे रचे-बसे हैं राम!


बात-चीत मे राम-राम,सम्बोधन राम-राम,अभिवादन राम-राम,कपड़ों पर राम-राम,घर की दीवार-दरवाज़ों पर राम-राम और तो और जिस्म के हर हिस्से पर राम-राम।खुद को ये कहते भी हैं तो रामनामी,यानी इनकी जात भी राम के नाम की।इनसे बड़ा रामभक्त और कौन हो सकता है भला।इनका राम न मंदिर मे है ना मूर्तियों मे,इनका राम तो हर आदमी में है,हर प्राणी मे हैं,जीव-जन्तु मे हैं पेड़-पौधों मे हैं,प्रकृति मे है।हैरानी की बात है सारे देश मे जिस राममंदिर और रामजन्म भूमि को लेकर तनाव फ़ैला हुआ है उससे इन्हे कोई लेना-देना नही है।शायद बहुतो को इस बात पर विश्वास भी नही हो रहा होगा,मगर ऐसे लोगों से मेरा निवेदन है कि वे छत्तीसगढ आयें और खुद अपनी आंखों से देख लें यंहा के रामनामियों को।
छत्तीसगढ के जांजगीर ज़िले के छोटे से गांव चारपार के एक दलित युवक परशुराम ने 1890  मे इस सांप्रदाय की स्थापना की थी।ये उस समय के भक्ति आंदोलन से भी जोड़ा जाता है तो कुछ लोग इसे दलित या सामजिक आंदोलन की तरह देखते हैं।वैसे भी छत्तीसगढ मे भक्ति आंदोलन का व्यापक असर रहा है और खासकर दलित और अछूत समझे जाने लोगों मे ।रामनामी भी उनमे से हैं।
राममंदिर आंदोलन को अल्पज्ञानियों का आंदोलन मानते हैं रामनामियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष एम एल टंडन्।उनका कहना है कि जिस राम के नाम पर झगड़ा-फ़साद हो वो राम हमे नही चाहिये।सारी लड़ाई सत्ता और कुर्सी की है।उनका कहना है जिनकी आस्था राम नाम मे हैं उन्हे ना तो मंदिर की ज़रूरत है और ना मूर्ति की।इसिलिये रामनामी ना तो मंदिर जाते हैं और ना मूर्ती-पूजा करते हैं।निर्गुण संतो की आध्यात्मिक परंपरा मे रचे-बसे रामनामी नशे और व्यसनों से कोसों दुर है और हिंदु समाज की कुरीति दहेज के कट्टर विरोधी।अधिकांश रामनामी खेती करते हैं और बचे समय मे राम भजन का प्रचार।
साल मे एक बार इनका मेला लगता है जंहा नये रामनामी दिक्षा लेते हैं,सबसे अच्छी बात्त ये है कि इस सम्प्रदाय मे किसी भी धर्म,किसी भी जाति,लिंग और वर्ण का व्यक्ति दिक्षा ले सकता है।रहन-सहन और बातचीत मे राम नाम का अधिकाधिक उपयोग करने के अलावा रामनामी के लिये शरीर पर राम का नाम गुदवाना (टैटू) ज़रुरी होता है।माथे पर दो बार राम का नाम गुदवाने वाले को शिरोमणी,पूरे चेहरे पर रामनाम गुदवाने वाले को सर्वांग और पूरे शरीर पर रामनाम गुदवाने वाले को नखशिख रामनामी कहा जाता है।

शरीर के विभिन्न हिस्सों मे रामनाम गुदवाने के कारण ये लोग अलग से पहचान मे आ जाते हैं।सिर से लेकर पैर और जीभ और तलुवे तक़ पर स्थाई रूप से रामनाम खुदवाने वाले असली रामभक्तों पर शायद अब पहचान और अस्तीत्व का संकट मंडराने लगा है।ज़ाहिर है आधुनिकता ने रामनामियों की नई पीढी को भी प्रभावित किया है और अब वे पूरे शरीर पर राम नाम खुदवाने से बचने लगे हैं।सौंदर्यबोध और पश्चिमी सभ्यता के बढते प्रभाव से रामनामी भी अछूते नही रहे हैं।लोग अब धरम करम छोड़ कर दिखावे मे लग गये गयें हैं,ऐसे मे अस्तित्व का संकट और गहराता जा रहा है,ये मानना है समाज के बुज़ुर्ग लोगों का। हितवाद अख़बार के फ़ोटो जर्नलिस्ट रूपेश यादव के सहयोग के बिना पोस्ट लिखना संभव नही होता,आभारी हूं रूपेश का।सारे चित्र उनके खिंचे हुये है।

20 comments:

विवेक सिंह said...

रामनामी संप्रदाय अपनी जगह ठीक है । लेकिन हमें लगता है कि शांति की चाह ही अशांति की सबके बड़ी जड़ है ।
अशांति से डरने पर वह पीछे पड़ जाती है ।

EJAZ AHMAD IDREESI said...

OHH !

डॉ महेश सिन्हा said...

गोदना तो अब पश्चिम में भी फैशन हो गया है। हाँ राम नाम भले ही फैशन में न हो ।

P.N. Subramanian said...

इस सम्प्रदाय के बारे में इतने विस्तार से अब जान पाया. आभार.

Girish Kumar Billore said...

अनिल भैया आज़ की सबसे उत्तम पोस्ट
एक नज़र इधर भी http://mukul2.blogspot.com/2010/09/blog4-varta-200.html सादर _गिरीश बिल्लोरे

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

देसिल बयना-नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे..., करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!
काव्य प्रयोजन (भाग-१०), मार्क्सवादी चिंतन, मनोज कुमार की प्रस्तुति, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

Unknown said...

अयोध्या की बात छेड़ी है आपने तो कुमार अंबुज जी की एक कविता याद आ रही है। मैंने अनुरोध किया तो कुमार अंबुज जी ने अपनी एक पुरानी कविता भेजी है। यह अब भी सामयिक है (अफसोस) ः-
तुम्‍हारी जाति क्‍या है कुमार अम्‍बुज/ तुम किस के हाथ का खाना खा सकते हो/और पी सकते हो किसके हाथ का पानी/चुनाव में देते हो किस समुदाय के आदमी को वोट/ऑफिस में किस जाति से पुकारते हैं लोग तुम्‍हें/और कहॉं ब्‍याही जाती हैं तुम्‍हारे घर की बहन बेटियॉं/ बताओ अपने धर्म और वंशावली के बारे में/किस धर्मस्‍थल पर करते हो तुम प्रार्थनाऍं/ तुम्‍हारी नहीं तो अपने पिता/अपने बच्‍चों की जाति बताओ/ बताओ कुमार अम्‍बुज/इस बार दंगों में रहोगे किस तरफ/और मारे जाओगे किसके हाथों।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

लेकिन अयोध्या में बनना चाहिये.. राम को यदि मानते हैं तो अवश्य...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

ये किस रोम की बात हो रही है जी :)

प्रवीण पाण्डेय said...

इस संम्प्रदाय के बारे में तो ज्ञात ही नहीं था। ज्ञानवर्धन का आभार।

संजय बेंगाणी said...

घोर साम्प्रदायिक लोगों के बारे में जान कर अच्छा लगा.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

सच्चे सरल प्रभू भक्तों को राजनीति से क्या लेना देना।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

राम राम रामनामी ना सही लेकिन उनसे कम भी नही हू मै

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

भैया आज़ की सबसे उत्तम पोस्ट.........

उम्मतें said...

अच्छी पोस्ट !

शरद कोकास said...

"जिस राम के नाम पर झगड़ा-फ़साद हो वो राम हमे नही चाहिये। "
कितने अर्थ है इस एक बात में लेकिन इसे कौन समझेगा ?

Udan Tashtari said...

राम राम!

ZEAL said...

बिलकुल नयी और अनोखी जानकारी ...जानकार बहुत अच्छा लगा। ....जय सिया राम !

Rahul Singh said...

By the way they dont belive on Dasharath-Nandan-RAAM. There are two very important researches on Ramnamis of Chhattisgarh; one is published as RAPT IN THE NAME, book by an american scholar Dr Ramdas Lamb, another is thesis on subaltern history By S Anitha. A good photograph of Ramnamis by Kamal Sahay is appeared on cover page of hindi magzine SAKSHI, ank-2.

Anonymous said...

@ Rahul ji, there is a report on BBC by alok putul. have a look- http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/09/100902_ramnami_cg_mb.shtml

Pramod Kumar, Raipur