Tuesday, May 24, 2011

तब देखते ही मूड आफ़ हो जाता था अब लगता है कि उनकी डांट-डपट का फ़ल बहुत मीठा मिला है।

वे कभी बहुत कड़क,बहुत तुनकमिजाज़ और अड़ियल हुआ करते थे। उनको देखते ही दिमाग भन्ना जाता था और कभी-कभी ऐसा लगता था कि ये बला तो पीछे ही पड़ गई। उनसे छुटकारे के कई उपाय आजमाने के साथ-साथ उन्हे छोड़ कर भागने तक़ कमाल कर चुका था मैं। उस समय हर नये नये जवान खून की तरह मेरा खून भी बिना वजह ऊबाल मारता था और उसे और खौलाने का काम संगी-सा्थी किया करते थे। तब पीढी के टकराव के दो पहलू थे हम।मैं नई पीढी के जोश मे पागल सब कुछ अपने हिसाब से करने का फ़ितुर पाले अल्हड़ नदी सा पहाड़ों का सीना चीरकर मैदान मारने की दिन रात कोशिश करता और वे पुरानी पीढी के अनुभवों का बांध लिये मुझे साधने की हर संभव कोशिश करते फ़ौलादी इरादे लिये चट्टान की तरह अडिग थे।टकराव बढता चला गया और टकराव के दौरान ही मुझे उनके पथरीले स्वभाव के बीच प्यार का झरना भी नज़र आ ही गया।उसके बाद तो पता ही नही चला कि कब मैं तृप्त हो गया और आज जो कुछ भी हूं उसमे एक हिस्सा उनका भी है।                  

 जी हां, मैं बात कर रहा हूं आसिफ़ इक़बाल की जो छत्तीसगढ की पत्रकरिता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे सठियाने जा रहे हैं, जबकि मुझसे कोई पूछे तो मैं कहुंगा कि वे तो हमेशा से ही सठियाये हुयें है। जाने-माने ब्लागर डा सुधीर शर्मा का कल मुझे पत्र मिला जिसमे उन्होने मुझसे आसिफ़ इक़बाल के साठ साल के होने पर एक स्मारिका मे अपने अनुभव और संस्मरण लिखने का अनुरोध किया था। डा सुधीर और मैं दोनो ही एक प्रकार से देखा जाये तो गुरूभाई ही हैं। दोनो को आसिफ़ इक़बाल ने उंगली पकड़ कर नही उंगली कर-करके लिखना सिखाया है।                                                                                                    

                                                  आसिफ़ इक़बाल अब एक खेल पत्रिका निकालते हैं "खेलधारा" । संघर्षपूर्ण रहा है उनका पत्रकारिता का सफ़र, लेकिन पत्रकारिता किसे कहते है वे अच्छी तरह से जानते थे और उन्होनें उस क्षेत्र मे अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। पत्रकारिता के स्वरूप में बदलाव के साक्षी रहे हैं आसिफ़ इक़बाल। उन्होने आक्रामक पत्रकारिता को रायपुर में स्थापित किया और उनके चेले-चपाटियों,जिनमें एक मैं भी हूं, नें उन तेवर को ज़िंदा रखा। आसिफ़ एकबाल एक सीधी-सादी शख्सियत का बेहद काम्प्लिकेटेड नाम हैं। नाम लेते ही एक सख्त चेहरा सामने आ जाता है,जिसके पीछे एक प्यारा सा इंसान छिपा हुआ है।                                                                                 वे अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित थे और सभी से वही समर्पण चाहते थे।उन दिनों मैं नया-नया रिपोर्टर था, अचानक़ एक दिन पता चला कि नये बास आ रहे हैं और उनका  नाम जब पता चला तो हाथ के तोते,कौयें,मोर-चोर सब उड़ गये।एक दिन उन्होने मुझसे कहा कि तुम ज़रा काम पे ध्यान दो और प्रेस क्लब जाना बंद करो।एक तो आर्डर और वो भी सबके सामने,उस आर्डर नें तो मेरे भीतर के हड़ताली को जगा दिया।बस मन ही मन तय कर  लिया चाहे कुछ भी हो जाये प्रेस क्लब जाना नही छोड़ूंगा।उन्होने दो-दिन बाद फ़िर टोका और कहा कि समझ मे नही आ रहा है क्या?बस अपन भी और ऊबल गये और जाना छोड़ने का सवाल ही नही उठता था।कुछ दिन बीते होंगे उन्होने अब कुछ भी कहना छोड़ दिया था। एक दिन प्रेस क्लब में बैठ कर कैरम खेलते हुये सारी दुनिया की ऐसी की तैसी कर रहा था और अचानक पीछे से आवाज़ आई चलो काम ढंग से नही करते तो क्या हुआ, कैरम तो ढंग से खेलते हो? मुझे तो जैसे सांप,हुंंंंंंंंंंंंंंंंं सांप नही एनाकोण्डा सूंघ गया।आवाज़ शत-प्रतिशत आसिफ़ भैया की ही थी।सामने वाले खिलाड़ी तो पहले ही खामोश हो चुके थे अब मेरी बारी थी। मैंने एक चांस लेते हुये पीछे पलट के देखा इस उम्मीद के साथ कि बोलने वाला कोई और निकल जाये। आसिफ़ भैया को देख मैने सिर्फ़ इतना ही कहा कि भैया बस अभी आया हूं।                           उन्होनें कहा झूठ मत बोलो। तुम यंहा एक घण्टे से हो,और मैं तुम्हारे पीछे-पीछे ही आ रहा हूं।और ये आज की बात नही रोज़ मैं तुम्हारे पीछे-पीछे यंहा आता हूम और वापस जाता हूं।मेरी सारी हेकड़ी सारी अकड़ और सारी बदतमीजी मुझे गुरूजी को देखकर स्कूल गोल मार कर घूम रहे बच्चों की तरह धोखा देकर भाग निकली थी कंही।मुंह से आवाज़ ही नही निकली।बात-बात पे कटखने कुत्ते की तरह गुर्राने की लिये कुख्यात था मैं मगर मेरे मुंह से बिल्ली की भी आवाज़ नही निकली।तब तक़ आसिफ़ इक़बाल ने गुस्से से कहा खेलो,खूब खेलो,मेरा क्या जाता है।पछताना बाद में।और वे पलट कर चले गये।                                                                                       मुझे कुछ सूझ नही रहा था।मन कर रहा था कि साले को इस्तीफ़ा दे-देता हूं।ऐसी बेइज़्ज़ती,ऐसा तो स्कूल मास्टर करते थे।यंहा भी वही सब होना है तो हम बड़े कब होंगे।मैं भी वंहा से उठा और चल दिया शाम को गुस्से से भरा प्रेस पंहुचा और इंतज़ार करने लगा किसी मौके का ताकि विवाद कर सकूं और इस्तीफ़ा दे कर भाग जाऊं।शायद वे मुझे,मुझसे ज्यादा समझते थे।उन्होनें मुझसे कुछ नही कहा और एक खबर थमा दी लिखने के लिये।उनके चेहरे पर छाई शांति देख कर मेरा गुस्सा भी धीरे धीरे ठण्डा पड़ने लगा और थोड़ी देर बाद जब उन्होने मुझसे पूछा हो गया गुस्सा शांत।तो मुझे समझ मे आ गया कि गुरू गुरू ही होता है।मैंने मरे हुये स्वर में उनसे सारी कहा और उसके बाद उनसे सीखने का जो भी मौका मुझे मिला,जितना  मौका मिला मैने उसे गंवाया नही।नतीजा आज भी बहुत से लोग मुझे उनकी शैली को ज़िंदा रखने वाला पत्रकार मानते हैं।साफ़-सफ़ाई पसंद आसिफ़ भैया अपनी टेबल एकदम व्यवस्थित  चाह्ते थे।कागज़ सलीके से रखते थे,और लिखते भी सलीके से ही थे।हमेशा क्लीन शेव,पूरी अस्तीन की फ़ुल शर्ट सलीके से पैंट में खोंची हुई।स्कूटर भी हमेशा साफ़-सुथरी,धूल का एक कण भी नज़र ना आये।चमचमाते जूते।एकदम फ़िल्मी हीरो और अपना अंदाज़ बिल्कुल उल्टा,बढी हुई दाढी,बेतरतीब बाल,जीन्स-टी-शर्ट,स्पोर्ट्स शू धूल  से लथ-पथ और यामाहा आर एक्स 100 वो भी धूल-कीचड से नहाई हुई।इन सब बातों पर भी वे टोकते रहते थे।लिखना तो ज़रूर सीख लिया मैनें उनसे मगर रहने का तरीका नही सीख पाया।शायद मुझे कुछ दिन और काम करने मिलता तो ये भी सीख लेता और इस उम्र में भी काम करने की लगन भी जो मुझमे शुरु से ही नही रही।आसिफ़ भैया को साठ साल की उम्र में अपनी पत्रिका के लिये मेहनत करते देखो तो लगता है कि पत्रकार बनों तो आसिफ़ इक़बाल जैसा वर्ना………………………॥

इस मौके पर उनकी याज़ बीमारी पर लिखी गई रिपोर्ट भी याद आती है,जिसके छपने के बाद पूरा प्रदेश हिल गया था,प्रशासन कुम्भकर्णी नींद से जागा था और याज़ का सम्पूर्ण निर्मूलन हो गया था।उनकी लम्बी उम्र की दुआओं के साथ-साथ उनकी कलम के जादू के जारी रहने की कामना करता हूं।

5 comments:

shikha varshney said...

एक सांस में पढ़ गई. रोचक, प्रेरणादायक और सशक्त संस्मरण.
और अंत में वही लगा."पत्रकार हो तो आसिफ इकबाल जैसा हो वरना....
आसिफ साहब को ६० वीं सालगिरह की ढेरों बधाई.और उनसे रूबरू कराने के लिए आपका कोटिश आभार.

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

Aasif bhai ko dher sari shubhakamnaye..

प्रवीण पाण्डेय said...

एक जुझारू व्यक्तित्व से परिचय कराया आपने।

Rahul Singh said...

आसिफ जी के लिए हार्दिक शुभकामनाएं.

shahroz said...

रोचक संस्मरण.