Monday, October 3, 2011
समझदार होते ही मैं वामपंथी हो गया,फ़िर अचानक़ साम्प्रदायिक हो गया,फ़िर पता चला कि बेईमान भी बन गया हूं
छोटा था तो शायद ज्यादा अच्छा था।तब सिर्फ़ नासमझ हुआ करता था।सिर्फ़ नासमझ।बहुत ज्यादा हुआ तो कभी-कभी नालायक,कभी-कभी मूर्ख और कभी-कभी ना सुधर पाने वाला नटखट।बस इससे ज्यादा पता नही।अब बड़ा हो गया हूं तो पता नही क्या बन गया हूं।समझदार होते ही मैं वामपंथी हो गया,फ़िर अचानक़ साम्प्रदायिक हो गया,फ़िर पता चला कि बेईमान भी बन गया हूं।इसके अलावा नेता,सुविधाभोगी,बड़ा आदमी,सेलेब्रेटी,पावर सेन्टर,मैनेजर और ना जाने क्या-क्या।ये सब मैं कब बना मुझे खुद को पता ही नही चला,लोगों से पता चला कि मैं इतना कुछ अबन चुका हुं।कभी-कभी दोस्त भी बताने से नही चूकते थे कि मैं बदल गया हूं,पहले जैसा नही रहा। इतना सब कुछ हो गया,इतना सब कुछ बदल गया और मैं हूं कि बदलाव कि उस बयार को महसूस ही नही कर पाया।शायद बचपन में मुझे प्राईमरी में पढाने वाली ज़लमा टीचर सही कहती कि मैं मूर्ख हूं।या फ़िर मेरे मामाजी,जो हमेशा मेरा मुंह खोल कर देखते थे और कहते अभी तक़ तुखे अकल दाढ नही आई है अकल कंहा से आयेगी।मुझे लगता है कि वे सही कहते थे,अकल होती तो मुझे पता नही चल जाता कि मैं वामपंथी होने के साथ-साथ दक्षिणपंथी भी होगया हूं।साम्प्रदायिक होने के साथ-साथ धर्मनिर्पेक्ष भीं हूं। पता नही कौन-कौन सच बोल रहा है,या किसका कहा सच हुआ है।पर मुझे अब ऐसा लगने लगा है कि चाहे जो भी बन गया हूं मैं,ढंग का ज़िम्मेदार नागरिक तक़ नही बन पाया हूं।पूरी उम्र हंसी-मज़ाक,हा हा,ही ही में ही बिता दी।इससे तो अच्छा था कि मैं बड़ा ही नही होता।ना साम्प्रदायिक बनता,ना बेईमान,ना बड़ा आदमी,ना दक्शिण और ना ही वामपंथी बनता।क्या होता ज्यादा से ज्यादा नासमझ ही रहता,मूर्ख ही रह्ता,नटखट ही रहता कम से कम वो सब तो नही होता जो मैं आज लोगो को नज़र आ रहा हूं।बेकार बड़ा हो गया,बेकार ही समझदार हो गया।पता नही क्यों?
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6 comments:
YOU ARE REAL MAN ....
YOU ARE REAL MAN
सच में पता नहीं क्यों बडे हो गए हम.....
बढिया चित्रण मनोभावों का
समझ बढ़ने से परेशानियाँ ही बढ़ती हैं।
कुछ कहने से पहले तो ये पूछने की जरुरत महसूस हो रही है भैया कि आखिर, ऐसा आत्मविश्लेषण करने की जरुरत ही क्यों आन पड़ी?
और फिर जहां तक मै आपको जाना या समझा, आप तो लोगों के कहने की कभी परवाह नहीं करते रहे, फिर क्यों ऐसा आत्मविश्लेषण, किसके कहने पर, किसके लिए और क्यों।
हटा सावन की घटा, जिसे जो सोचना हो आपके बारे में सोचने दो ना, अपना क्या जाता है।
आप समाज के लिए कितने जरूरी हैं, यह बहुतेरे महसूस करते हैं, इसलिए यह मूल्यांकन समाज के लिए छोड़ रखें.
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