गाँव अब गाँव नहीं रहे बल्कि वृध्दाश्रम बनते जा रहे हैं। ऐसा मुझे सोमवार को लगा जब मैं अपने ननिहाल गया । वहां जाकर ऐसा लगा कि गाँव को किसी की नज़र लग गई है। गांव में जिस भी घर में गया वहां बुजुर्गों के अलावा कोई नहीं मिला। बचपन के संगी-साथियों में से कोई रोजी-रोटी के लिए तो कोई बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बहाने गाँव छोड़ चुका था।
एकदम अजनबी सा लगने लगा था मुझे अपना ननिहाल। छोटा सा गाँव धानोरा मेरा ननिहाल है महाराष्ट्र के अमरावती जिले में। बचपन से लेकर जवानी तक गर्मियों और दीपावली की छुट्टियाँ मैने वहीं बिताई थी। शहर के फुटबॉल, क्रिकेट को छोड़कर गांव की अमराइयों में, डाब-डुबली, (पेड़ों पर छूकर आऊट करने का खेल) और गिल्ली डंडा खेला करते थे। थक जाते तो पास में बहती छोटी सी खोलाट नदी के किनारों और कहीं-कहीं जमा पानी में तैरा करते थे। तैरना भी मुझे गाँव के ही दूर के मौसेरे भाई विनोद और अविनाश ने सिखाया था। खेल और तैरकर थक कर चूर होकर लौटते समय जिस घर में पहले खाना बना मिलता वहीं खा लेते थे। पता ही नहीं चलता था कब दिन निकलता था और कब रात होती थी। और फिर कब दूसरा दिन निकल आता।
गर्मियों के दो महीने की और दीपावली की एक महीने की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थी। पूरे गाँव का भांजा था मैं। सभी घरों में आना-जाना, खाना और सभी से उतना ही प्यार मिलता था। एकदम शुध्द प्यार। कभी-कभी खेतों पर काम करने वालों के साथ भी खाना खा लेता था। वो तीखी मिर्च का ठेसा और ज्वार की रोटियों का स्वाद भूलाए नहीं भूलता। दीपावली की छुट्टियाँ खत्म होते ही गर्मियों का इंतजार रहता था और गर्मियाँ खत्म होते ही दीपावली का।
सब कुछ एकाएक बदला सा लगने लगा था। जब मैं सालों बाद कुछ दिनों के लिए गाँव में रूका। बगल में रहने वाली अनु मावशी (मराठी में मौसी को मावशी कहते हैं) के घर पर ताला लटका था पता चला कि वो जानवरों के लिए बने बाड़े में कमरा बनवाकर रहने लगी है। विन्या ,पम्या के बारे में पूछा तो दोनों बगल के तहसील मुख्यालय में रहने लगे हैं। खुद गाँव में पढ़कर बड़े हुए पम्या और विन्या को अब गाँव का स्कूल पसंद नहीं आ रहा है। बच्चों की खातिर उस माँ को छोड़कर चले गए जिसने उन्हें पाल-पोसकर बच्चे से बड़ा बनाया। आगे निकलकर गाँव के जाने-माने मराठा परिवार के यहाँ गया, वहाँ भी वही हाल था। और यही हाल गाँव के बड़े साहुकार परिवार का था। परिवार के मुखिया नहीं रहे थे। उनका बड़ा लड़का गाँव का सरपंच बन गया था। सोचा उससे मुलाकात हो जाएगी। लेकिन वो भी वापस शहर जा चुका था। वो शहर से कुछ घंटों के लिए रोज गाँव आता है। दिवाकर से प्रभाकर और अनिल से सुनील पक्या (प्रकाश ) से मन्या (मनोहर) सभी रोजी-रोटी और बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए शहर में बस गए थे।
अनु मावशी से मिला तो दिमाग खराब हो गया। हमेशा हंसते-खिलखिलाते रहने वाली अनु मावशी खटिया पकड़ चुकी है। उनका सबसे बड़ा लड़का भाऊ जरूर उनके बगल में मकान बनाकर रहता है। मगर वो बंटवारे से नाराज चल रहा है।वहिनी (भाभी) का भी यही हाल है। भाऊ का कहना है छोटे भाईयों की पढ़ाई के लिए उन्होंने पढ़ाई छोड़ी थी। और अब जब बंटवारा हुआ तो भी छोटों को मन पसंद खेत और मकान दे दिए गए। वे यहाँ बाड़े में आ गए हैं। दोनों के बारे में मावशी की राय ठीक नहीं थी। और पम्या व विन्या के बारे में तो और गलत।
पुराने दिनों को याद कर अनु मावशी रो पड़ी थी रोते-रोते ही उन्होंने एक कड़वा सच भी कह दिया। उन्होंने कहा कि गाँव अब बूढ़े लोगों का बसेरा हो गया है। जवानों को तो शहर की हवा लग गई है। हम लोग यहाँ पुराने ढह रहे मकानों की चौकीदारी करते आखिरी सांस का इंतजार कर रहे हैं। उनसे मिलकर लौटते समय अच्छा नहीं लग रहा था। नदी की ओर गया तो छोटे से स्टाप डेम ने नदी को भी गाँव की महिलाओं की तरह बूढ़ी बना दिया था। अमराईयां अचानक बबूल के जंगलों की तरह नज़र आने लगी थी। रेखा मावशी से मिलकर जब वापस लौटने लगा तो मन और खट्टा हो चला था। उनके बाड़े में बहुत सी दीवारें उठ गई थी। दीवारें जो सिर्फ घरों को ही नहीं दिलों को भी बांट चुकी थी। गाँव में अब बड़े-बड़े बाड़े नहीं रह गए। बाड़े तो क्या अब गोठान भी नहीं रहा। वहाँ गोधुली बेला में अब धूल नहीं उठती। गाय-बछड़ों के गले की घंटियाँ लाजवाब संगीत नहीं छेड़ती। अब उठता है ट्रक, ट्रैक्टर या बसों के आने के बाद धूल का गुबार और घंटियों के सुमधुर संगीत के बजाय सुनाई पड़ते हैं कर्कश हॉर्न। अब गाँव के ग्राम पंचायत का रेडियो भी नहीं बजता। लोग रात को विविध भारती या ऑल इंडिया रेडियो के गानों का इंतजार नहीं करते।अधिकांश घरों में टीवी आ गया है। इसलिए शाम होने के बाद लोग ग्राम पंचायत भवन में इकठ्ठा भी नहीं होते। गाँव के बदल जाने का सदमा लिए मैं वापस लौट रहा था। गाँव से शहर आने के रास्ते में अंबापुर वाले मारूति के दर्शन किए। वहाँ मुझे अपने सगे मामा अरविंद के बाल सखा सुरेश मानकर मिल गए। बाकी कसर उन्होंने पूरी कर दी। मैने पूछा मामा यहाँ? गाँव......... बीच में मेरी बात काटते हुए उन्होंने कहा गाँव में रखा ही क्या है भांजे? बस अब बजरंगबली की सेवा करता हूँ। ये अच्छा है, इसके पास न छल है न कपट। मैं हक्का-बक्का था। धीरे से पूछा गाँव के लोग कुछ बदले से नज़र आए। अपनी आदत के अनुसार उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया और गाँव के बदलने का महत्वपूर्ण कारण भी बता दिया। उन्होंने कहा कि पंचायत के चुनावों के बाद गाँव में कई पार्टियाँ बन गई है। और बाकी कसर दारू ने पूरी कर दी। अच्छा है तुम लोग शहर में रहते हो ,वहीं रहो ज्यादा अच्छा है। गाँव में अब कुछ नहीं रखा है। उनकी बातें मेरे कानों में अब भी गूँज रही है। अब जबकि मैं लगभग साढ़े 4 सौ किलोमीटर दूर वापस रायपुर आ गया हूँ। मुझे लगता है कमोबेश यही हालत हर गाँव की होती जा रही है।(ये पोस्ट 15 जुलाई 2008 को लिखी थी।इस बार भी गांव जाकर कुछ दिन रुकना चाहा मगर हालत बिल्कुल वैसी ही थी,हां अब अनु मावशी इस दुनिया में नही रही)पार्टीबज़ियों के कारण बहुत से मामा जिनकी गोद में मेरा बचपन गुज़रा,उन्होने सिर्फ़ मुस्कुरा कर इतना ही पूछा कब आया और कौन-कौन आया?बस न घर चलने के किये कहा और ना कोई बात।पंचायत चुनावों का ये दुष्परिणाम शायद मैने पहली बार महसूस किया है गांव के कई टुकड़े हो चुके है।लिखने को बहुत कुछ है मगर बचपन याद कर दिल भर आता है,शायद इसिलिये नया कुछ ना लिखते हुये पुरानी पोस्ट रिठेल कर रहा हूं,हो सकता है आप लोग मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत हो,जो आपका गांव ना बदला हो।अगर ऐसा कुछ हो तो मुझे भी बताईयेगा।
एकदम अजनबी सा लगने लगा था मुझे अपना ननिहाल। छोटा सा गाँव धानोरा मेरा ननिहाल है महाराष्ट्र के अमरावती जिले में। बचपन से लेकर जवानी तक गर्मियों और दीपावली की छुट्टियाँ मैने वहीं बिताई थी। शहर के फुटबॉल, क्रिकेट को छोड़कर गांव की अमराइयों में, डाब-डुबली, (पेड़ों पर छूकर आऊट करने का खेल) और गिल्ली डंडा खेला करते थे। थक जाते तो पास में बहती छोटी सी खोलाट नदी के किनारों और कहीं-कहीं जमा पानी में तैरा करते थे। तैरना भी मुझे गाँव के ही दूर के मौसेरे भाई विनोद और अविनाश ने सिखाया था। खेल और तैरकर थक कर चूर होकर लौटते समय जिस घर में पहले खाना बना मिलता वहीं खा लेते थे। पता ही नहीं चलता था कब दिन निकलता था और कब रात होती थी। और फिर कब दूसरा दिन निकल आता।
गर्मियों के दो महीने की और दीपावली की एक महीने की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थी। पूरे गाँव का भांजा था मैं। सभी घरों में आना-जाना, खाना और सभी से उतना ही प्यार मिलता था। एकदम शुध्द प्यार। कभी-कभी खेतों पर काम करने वालों के साथ भी खाना खा लेता था। वो तीखी मिर्च का ठेसा और ज्वार की रोटियों का स्वाद भूलाए नहीं भूलता। दीपावली की छुट्टियाँ खत्म होते ही गर्मियों का इंतजार रहता था और गर्मियाँ खत्म होते ही दीपावली का।
सब कुछ एकाएक बदला सा लगने लगा था। जब मैं सालों बाद कुछ दिनों के लिए गाँव में रूका। बगल में रहने वाली अनु मावशी (मराठी में मौसी को मावशी कहते हैं) के घर पर ताला लटका था पता चला कि वो जानवरों के लिए बने बाड़े में कमरा बनवाकर रहने लगी है। विन्या ,पम्या के बारे में पूछा तो दोनों बगल के तहसील मुख्यालय में रहने लगे हैं। खुद गाँव में पढ़कर बड़े हुए पम्या और विन्या को अब गाँव का स्कूल पसंद नहीं आ रहा है। बच्चों की खातिर उस माँ को छोड़कर चले गए जिसने उन्हें पाल-पोसकर बच्चे से बड़ा बनाया। आगे निकलकर गाँव के जाने-माने मराठा परिवार के यहाँ गया, वहाँ भी वही हाल था। और यही हाल गाँव के बड़े साहुकार परिवार का था। परिवार के मुखिया नहीं रहे थे। उनका बड़ा लड़का गाँव का सरपंच बन गया था। सोचा उससे मुलाकात हो जाएगी। लेकिन वो भी वापस शहर जा चुका था। वो शहर से कुछ घंटों के लिए रोज गाँव आता है। दिवाकर से प्रभाकर और अनिल से सुनील पक्या (प्रकाश ) से मन्या (मनोहर) सभी रोजी-रोटी और बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए शहर में बस गए थे।
अनु मावशी से मिला तो दिमाग खराब हो गया। हमेशा हंसते-खिलखिलाते रहने वाली अनु मावशी खटिया पकड़ चुकी है। उनका सबसे बड़ा लड़का भाऊ जरूर उनके बगल में मकान बनाकर रहता है। मगर वो बंटवारे से नाराज चल रहा है।वहिनी (भाभी) का भी यही हाल है। भाऊ का कहना है छोटे भाईयों की पढ़ाई के लिए उन्होंने पढ़ाई छोड़ी थी। और अब जब बंटवारा हुआ तो भी छोटों को मन पसंद खेत और मकान दे दिए गए। वे यहाँ बाड़े में आ गए हैं। दोनों के बारे में मावशी की राय ठीक नहीं थी। और पम्या व विन्या के बारे में तो और गलत।
पुराने दिनों को याद कर अनु मावशी रो पड़ी थी रोते-रोते ही उन्होंने एक कड़वा सच भी कह दिया। उन्होंने कहा कि गाँव अब बूढ़े लोगों का बसेरा हो गया है। जवानों को तो शहर की हवा लग गई है। हम लोग यहाँ पुराने ढह रहे मकानों की चौकीदारी करते आखिरी सांस का इंतजार कर रहे हैं। उनसे मिलकर लौटते समय अच्छा नहीं लग रहा था। नदी की ओर गया तो छोटे से स्टाप डेम ने नदी को भी गाँव की महिलाओं की तरह बूढ़ी बना दिया था। अमराईयां अचानक बबूल के जंगलों की तरह नज़र आने लगी थी। रेखा मावशी से मिलकर जब वापस लौटने लगा तो मन और खट्टा हो चला था। उनके बाड़े में बहुत सी दीवारें उठ गई थी। दीवारें जो सिर्फ घरों को ही नहीं दिलों को भी बांट चुकी थी। गाँव में अब बड़े-बड़े बाड़े नहीं रह गए। बाड़े तो क्या अब गोठान भी नहीं रहा। वहाँ गोधुली बेला में अब धूल नहीं उठती। गाय-बछड़ों के गले की घंटियाँ लाजवाब संगीत नहीं छेड़ती। अब उठता है ट्रक, ट्रैक्टर या बसों के आने के बाद धूल का गुबार और घंटियों के सुमधुर संगीत के बजाय सुनाई पड़ते हैं कर्कश हॉर्न। अब गाँव के ग्राम पंचायत का रेडियो भी नहीं बजता। लोग रात को विविध भारती या ऑल इंडिया रेडियो के गानों का इंतजार नहीं करते।अधिकांश घरों में टीवी आ गया है। इसलिए शाम होने के बाद लोग ग्राम पंचायत भवन में इकठ्ठा भी नहीं होते। गाँव के बदल जाने का सदमा लिए मैं वापस लौट रहा था। गाँव से शहर आने के रास्ते में अंबापुर वाले मारूति के दर्शन किए। वहाँ मुझे अपने सगे मामा अरविंद के बाल सखा सुरेश मानकर मिल गए। बाकी कसर उन्होंने पूरी कर दी। मैने पूछा मामा यहाँ? गाँव......... बीच में मेरी बात काटते हुए उन्होंने कहा गाँव में रखा ही क्या है भांजे? बस अब बजरंगबली की सेवा करता हूँ। ये अच्छा है, इसके पास न छल है न कपट। मैं हक्का-बक्का था। धीरे से पूछा गाँव के लोग कुछ बदले से नज़र आए। अपनी आदत के अनुसार उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया और गाँव के बदलने का महत्वपूर्ण कारण भी बता दिया। उन्होंने कहा कि पंचायत के चुनावों के बाद गाँव में कई पार्टियाँ बन गई है। और बाकी कसर दारू ने पूरी कर दी। अच्छा है तुम लोग शहर में रहते हो ,वहीं रहो ज्यादा अच्छा है। गाँव में अब कुछ नहीं रखा है। उनकी बातें मेरे कानों में अब भी गूँज रही है। अब जबकि मैं लगभग साढ़े 4 सौ किलोमीटर दूर वापस रायपुर आ गया हूँ। मुझे लगता है कमोबेश यही हालत हर गाँव की होती जा रही है।(ये पोस्ट 15 जुलाई 2008 को लिखी थी।इस बार भी गांव जाकर कुछ दिन रुकना चाहा मगर हालत बिल्कुल वैसी ही थी,हां अब अनु मावशी इस दुनिया में नही रही)पार्टीबज़ियों के कारण बहुत से मामा जिनकी गोद में मेरा बचपन गुज़रा,उन्होने सिर्फ़ मुस्कुरा कर इतना ही पूछा कब आया और कौन-कौन आया?बस न घर चलने के किये कहा और ना कोई बात।पंचायत चुनावों का ये दुष्परिणाम शायद मैने पहली बार महसूस किया है गांव के कई टुकड़े हो चुके है।लिखने को बहुत कुछ है मगर बचपन याद कर दिल भर आता है,शायद इसिलिये नया कुछ ना लिखते हुये पुरानी पोस्ट रिठेल कर रहा हूं,हो सकता है आप लोग मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत हो,जो आपका गांव ना बदला हो।अगर ऐसा कुछ हो तो मुझे भी बताईयेगा।
4 comments:
AB N TO GANV BACHE HAIN AUR N HI GANV JAISA MAN .... AB SAYAD HI AP KAH SAKTE HAIN GORI TERA GAVN
आह, देश को ये दिन देखने को लिखे थे।
गांव भी अब आख़िर क्या करें. सरकारों को ध्यान ही केवल नगरों व महानगरों का है, इसीलिए लोग यहां से चलायमान रहते हैं. गांवों में अगर शहरों की सी अच्छी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हों तो मुमकिन है कई लोग गांवों से यूं न जाएं.
चिंतनीय विषय.....
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