Monday, May 27, 2013

महेन्द्र कर्मा ने कहा था"आदिवासी कह रहा है हमे हमारे हाल पर छोड दो"

नक्सलियों की हिट लिस्ट में टॉप पर हैं वरिष्ठ कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा। वे जब नक्सल समस्या पर बोलने लगे तो एक नेता के साथ-साथ एक आदिवासी का दर्द भी उनकी जुबान से निकल रहा था। उन्होंने कहा कि बस्तर का आदिवासी कह रहा है कि बहुत हो चुका है हमें हमारे हाल पर छोड़ दो।

महेन्द्र कर्मा छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष है। जवानी में महेन्द्र कर्मा भी कामरेड ही थे लेकिन समय के साथ उनके विचार बदले और अब वे कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं और सलवा जुडूम के घोर समर्थक। प्रेस क्लब में माकपा नेता धर्मराज महापात्र के जोशीले भाषण ने श्रोताओं की जितनी तालियाँ बटोरी उतना ही कर्मा को गुस्से से भर दिया। स्वभाव से तेज़तर्रार महेन्द्र कर्मा व्याख्यान शुरू करते ही तैश में आ गए। उनका गुस्सा स्वाभाविक था। उन्होंने कहा कि लोगों ने बस्तर देखा तक नहीं, वे जानते तक नहीं हैं सलवा जुडूम क्या है ? वे आदिवासी को पहचानते तक नहीं हैं और ऐसे लोग बात करते हैं बस्तर की नक्सल समस्या पर। उन्होंने कहा बस्तर का आदिवासी त्रस्त हो चुका है और वो कह रहा है नक्सलियों से कि बहुत हो चुका चले जाईए, हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए।

कर्मा की आवाज़ में जितनी गर्मी थी उससे ज्यादा उसमें आदिवासियों के दर्द की नमी थी। पसीने से तर हो गए महेन्द्र कर्मा बोलते-बोलते। उन्हाेंने जमकर लताड़ा शहर में रहकर जंगल की समस्याओं पर करने वालों को। उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम आदिवासियों की अपनी मर्जी से जीने की अपील है। छोटा-मोटा आंदोलन होता है तो सारे देश और दुनिया में हंगामा होता है लेकिन इतना बड़ा आंदोलन आदिवासियों का चल रहा है और वे अकेले हैं। देश क्यों नहीं खड़ा होता उनके साथ। आखिर क्या गलत कर रहे हैं वो। हिंसा के खिलाफ बस्तर का अनपढ़ आदिवासी तनकर खड़ा है तो वो अपने दम पर। उसे किसी की मदद मिले या न मिले वो लड़ता रहेगा नक्सलियों से। आखिर ये उनके अस्तित्व की लड़ाई है। अगर वो हार गए तो हिंसा के सामने अहिंसा हार जाएगी, सारा देश हार जाएगा।

उन्होंने कहा कि नक्सली 40 साल से बस्तर में ऑंदोलन कर रहे हैं। वे क्या कहते हैं पता नहीं लेकिन करते क्या हैं ये सब जानते हैं ? उन्होंने कहा कि इन 40 सालों में क्या किया है नक्सलियों ने बस्तर में ? एक भी कोई विकास का काम किया है ? किसी भी सरकार को कभी कोई फेहरिस्त सौंपी है ? क्या कभी कोई बात की है किसी से ? क्या बात करेंगे ये लोग आदिवासियों के हितों की ? इन्हें तो अपने हित साधने से ही फुर्सत नहीं है। कभी तेंदूपत्ता के दाम बढ़ाने के लिए धमकी-चमकी दी थी और सरकार के दाम बढ़ाते ही तत्काल बढ़े हुए दामों में से अपना हिस्सा ठेकेदारों से तय कर लिया। ये लुटेरे हैं। कहीं भी बेरियर लगा देते हैं और वसूली करने बैठ जाते हैं।

बोलते-बोलते अचानक अपनी ही पार्टी के नेता की खिंचाई कर दी महेन्द्र कर्मा ने। साफ-साफ बोलने के कारण बार-बार विवादों में घिरने वाले कर्मा इस बार भी घबराए नहीं। हालाकि उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का नाम नहीं लिया लेकिन जो कहा उसे सारे लोग समझ गए। उन्होंने कहा कि यदि मैं सलवा जुडूम के मामले में रमन सिंह का समर्थन करता हूँ तो इसे पोलिटिकल एलाइनमेंट कहते हैं। तरस आता है ऐसे लोगों पर। अरे सरकार तो आती-जाती रहती है। सरकार के अलावा भी कोई चीज होती है सोचने के लिए। जहाँ मौत नाचती हो वहाँ राजनीति नहीं करना चाहिए। लाषों पर राजनीति करने वालों को शर्म आनी चाहिए। यहाँ उन्होंने नक्सलवाद के मामले में अपने अभियान के पार्टनर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की खिंचाई करने से भी परहेज नहीं किया। उन्होंने कहा कि डॉ. ने बीच में सलवा जुडूम की मदद करने में थोड़ी ढील दे दी और उसी का नतीजा है कि ऑंदोलन थम गया है।
उन्होंने कहा कि नक्सलवाद आतंकवाद का दूसरा चेहरा है। आप इसे सामाजिक-आर्थिक शोषण के नज़रिए से नहीं बल्कि प्रजातंत्र के खिलाफ हिंसा के नज़रिए से देखिए। इसे तत्काल राष्ट्रीय समस्या घोषित किया जाना चाहिए। ये रमन सिंह या महेन्द्र कर्मा के अकेले के बस की समस्या नहीं है। नक्सलवाद के नाम पर लूट-खसौट और हिंसा का दौर समाप्त होना चाहिए। इसके लिए सबको राजनीतिक संकीर्णता को छोड़ एक साथ खड़ा होना होगा और जिस दिन सब एक साथ खड़े हो गए नक्सलवाद घंटों में नहीं मिनटों में मिट जाएगा। जब तक महेन्द्र कर्मा बोलते रहे तब तक हवा में अजीब-सी सनसनी फैली रही। ऐसा लग रहा था कि बस्तर के आदिवासियों के दर्द के साथ-साथ एक नेता के गुस्से का ज्वालामुखी रह-रहकर फट रहा हो। सब स्तब्ध होकर सुन रहे थे, वे लोग जो शहर में बैठकर बस्तर में सरकार और प्रजातंत्र के फेल होने और नक्सलियों का साम्राज्य होने की चर्चा एसी रूम में बैठकर करते हैं। पता ही नहीं चला कि कब 20 मिनट पूरे हो गए और महेन्द्र कर्मा का भाषण खत्म हुआ। उसके बाद तो अचानक सन्न पड़ा प्रेस क्लब का हॉल जाग गया और तालियों की गड़गड़ाहट ये बताने लगी कि हमें बस्तर का सच अब पता चल रहा है। मुख्यमंत्री क्या बोले नक्सल समस्या पर ये अगली पोस्ट मे _ 21 अगस्त 2008 को प्रेस क्लब रायपुर में दिये गये भाषण का अंश.

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

वही स्वर आज शान्त कर दिया इन दुर्दान्तों ने, गोली से।

Arvind Mishra said...

Please you take care too for being loud on the issue since last many years!

Raravi said...

आपका लेख कर्मा जी के मरणोपरांत सार्थक श्रद्धांजलि है. हमारी व्यवस्था में शोषण और दमन है मगर हिंसा उसका निदान नहीं हो सकता है।

आपके अगले लेख का इन्तेजार रहेगा -- डा रमण के विचारों का।



TOI की एक रिपोर्ट थी . इसमें कैसे महेंद्र कर्मा को क्रूरता पूर्वक नक्सलियों ने मार इसका विस्तृत वर्णन था . ऐसा लिखने और छापने वालों में बड़ी संवेदनहीनता है. मरणोपरांत किसी को अपमानित और उनके परिजनों के जले पर नमक छिरकने का क्या मकसद हो सकता है मुझे समझ नहीं आता।