Monday, July 29, 2013

कब छद्म धर्मनिरपेकक्षता से मुक्त होंगे?कब मौत मौत का फर्क़ मिटेगा?

क्या करण पांडे और पुनीत शर्मा की मौत मौत नही है? क्या उनकी ज़िंदगी ज़िंदगी नही थी?क्या इस देश में ज़िंदगी ज़िंदगी में फर्क़ होता है?क्या यंहा मौत के भी मायने अलग अलग हैं?क्या यंहा राज्य के हिसाब से मौत का आकलन होता है?क्या एनकाऊंटर सिर्फ गुजरात में होते हैं?क्या मौत पत बवाल सिर्फ अल्पसंख्यको के ही मचाया जाता है?सोहराबुद्दीन और करण पांडे में फर्क़ क्यों?इशरत जंहा और करण मे अंतर क्यों?दिल्ली और गुजरात के लिये राजधर्म अलग अलग है?क्या पुलिस पुलिस में फर्क़ होता है?स्टंट कर रहे करण पांडे और उसके साथी क्या देश के लिये खतरा थे जो उन्हे मौत के घाट उतार दिया.और फिर बाईक पिछले चक्के पर खडा भी कर र्दो तो भी गोली लगने से मौत हो जाये ऎसा जरुरी नही है?जरुर उसके नाज़ूक अंगो पर गोली लगी होगी.गुजरात में हुई हर मौत पर मोदी को हत्यारा कहते नही थकने वालो की ज़ुबान पर दिल्ली पुलिस और सरकार का नाम क्यों नही आ रहा है?क्या शीला दिक्षीत के लिये नियम अलग और नज़रिया अलग है?कब इस छद्म धर्मनिरपेक्षता से मुक्ति मिलेगी?

2 comments:

पूरण खण्डेलवाल said...

सही कह रहें है आप और इसी बात का जिक्र मैनें अपनें कल के आलेख में किया था !
दंगो का दर्द क्या किसी पार्टी की सरकारें देखकर होता है !!

ताऊ रामपुरिया said...

जब तक राजनिती के ये पैमाने हैं तब तक छद्म धर्मनिरपेक्षता से मुक्ति से मुक्ति मिलना कठिन है.

रामराम.