Friday, August 9, 2013

विभाजन के ज़ख्म को लगता है हमारे देश की सरकारो नें अलप्संख्यको की सहायता के नाम पर हरा भरा ही रखा

समय कितना बदला है.कभी आज ही के दिन सुबह उठते नहा कर घर से निकलते थे तो सीधे रात को ही घर लौटते थे.आज पूरी छूट होती थी दिन भर दोस्तो के घर जाने की,गले मिलने की और उनके घर खाना खाने की भी.पर भूले नही भुलाई भूलती बूंदू.असली नाम पता नही.बचपन से हम सब उन्हे इसी नाम से जानते थे,पुकारते थे.छोटे ही थे उनकी शादी हो गई थी.वे आज दुनिया में नही है पर ईद के दिन सुबह सबसे पहले वे सेवाईंयो से भरा डिब्बा लेकर हमारे घर आती थी और आई से कहती थी "आप भले मत खाना आई,पर भैया लोगो को जरूर देना".हमारी आई सालो उनके पडोस में रही पर जाने क्यों उनके घर का कुछ खा नही पाती थी.हां चाय जरुर पी लेती थी.बुंदू के घर की सेवाईंया खाकर निकले के बाद तो गले मिलते मिलते ही थक जाते थे.पूरा मुहल्ला मुस्लिम बहुल था.मौदहापारा.बचपन गुज़रा वंहा,जवानी भी.पर अब लगता है सब बदलता सा जा रहा है.वे लोग तो आज भी नही बदले.आज भी उस मुहल्ले के लिये मै वही छोटा सा खुराफाती बच्चा हूं.अनीस,इस्लाम,हक़ीम,भोंदू जो आज कल हाजी अब्दुल अजीम है,अकबर भैया मंत्री बनने के बाद भी कभी मंत्री नही लगे,भैया ही रहे,सबसे खास दोस्त रज्जू उर्फ सत्तार जिसे मैने तब से आज तक राजेंद्र कहकर ही पुकारा.कभी सत्तार नही कहा.उसके घर पर आवाज़ देने पर अम्मा भी जवाब देते थी मुझे राजेन्द्र नही है बेटा.कभी मुझे बेटा के सिवाय कुछ नही कहा.अनीस की अम्मी आज इस दुनिया में नही है.वे भी मुझे बेटा ही कहती थी.शहर के जाने माने वकील स्व अफज़ाल अहमद रिज़वी,इंका नेता इक़बाल अहमद रिज़वी मामा थे और हमेशा रहेंगे.मामियों ने जी भर कर प्याय उंडेला.मेहमूद जिसके बिना तो हम लोग सालो से नवरात्र में डोंगरगढ के प्रसिद्ध बम्लेश्वरी मैया के मंदिर तक नही जाते.याकूब मोकाती हमारे घर का सदस्य ही है.कालेज में मिला शकील.आज तक दोस्त है और उसके घर जाने पर अम्मी कभी हम दोनो को अलग अलग थाली में खाना नही देती थी,एक ही थाली में खाते थे हम.वे आज नही है पर मेरे लिये वे भी आई से कम नही थे.ईद को गले मिलते मिलते थक जाता था.पूरा मौदहापारा गले मिलता था.कालेज के चुनाव में मैने जिन्हे कभी देखा तक नही था,सबके कालेज चले आये थे.किसी ने कह दिया था कि अनिल को फार्म भरने नही दिया जायेगा.सबके सब वंहा पहुंचे थे.उस समय प्यार था.गले मिलो तो सुकून मिलता था और आज भी मिलता है पर बहुत से लोग गले भी मिलते है तो अफज़ल खान और शिवाजी की तरह.विभाजन के ज़ख्म को लगता है हमारे देश की सरकारो नें अलप्संख्यको की सहायता के नाम पर हरा भरा ही रखा और बाकि कसर पाकिस्तान की नापाक हरकते पूरा करती रही.आतंकवाद,कश्मीर की घुसपैठ उन ज़ख्मो को नासूर में बदलती रही और सरकारे भी ईलाज के नाम पर उसे सहलाने की बजाय कुरेदती रही.दंगो ने भी उन्हे ताज़ा बनाये रखने में कोई कसर नही छोडी.अल्पसंख्यक -बहुसंख्यक की परिभाषा से दोनो के बीच अविश्वास की खाई खोदती रही जो दिन ब दिन गहरी होती जा रही है.खैर मुझे तो कोई फर्क़ नही पडा और मेरे जैसे बहुत से लोगो को नही पडा,पर जब भी मैं पाकिस्तान या आतंकवाद के खिलाफ लिखता हूं तो पता नही क्यों मुझे भी शक़ की निगाहो से देखा जाने लगा है.इसमे कोई शक़ नही मैं हिंदू हूं.हूं तो हूं.हां पर ईद में मै दोस्तो के घर जाना नही भूलता और ना गले मिलते समय इधर उधर देखता हूं.गले मिलता हूं दिल से.कोई शक़ नही,कोई अविश्वास नही,सिर्फ प्यार.शायद मकसद होना भी चाहिये भाईचारा.

2 comments:

Alpana Verma said...

आम नागरिक कभी झगड़े -फसाद नहीं चाहता.वह सब से मिलकर रहना चाहता है.

लेकिन सत्ताधारी को
वोटों की रोटियाँ सेंकते रहने को आग चाहिए वही जलाए रखना चाहते हैं.

प्रवीण पाण्डेय said...

अपनी गलियाँ छोड़ चले जन, किधर चले हैं।