बस्तर में बुधवार की शाम फिर तीन जवानों को नक्सली हमले में जान से हाथ धोना पड़ा । इस खबर के सामने आने के बाद उसके पीछे छिपा कर रखी गई एक और खबर सामने आई। बस्तर के ओरछा इलाके के लोग पखवाड़े भर से अंधेरे से त्रस्त थे। नक्सलियों ने वहां 5 खंभे गिरा दिये थे। उसी इलाके की बिजली सुधार कर वापस लौट रहे दल पर नक्सलियों ने हमला किया था जिसमें तीन जवान शहीद हो गये।
ओरछा के लोग अगर मंगलवार को अंधेरें से त्रस्त होकर चक्काजाम नहीं करते तो शायद बिजली बोर्ड उस ओर ध्यान ही नहीं देता क्योंकि पखवाड़ेभर तक उसने ये खबर बड़ी आसानी से छिपा थी। चक्काजाम के बाद सारी हकीकत सामने आ जाने के डर से बिजली सुधारने के लिये वहां टीम भेजी गई वो भी कड़ी सुरक्षा में। सुधार काम पूरा करके बिजली वाले सकुशल लौट गये मगर जिला पुलिस बल के जवान रतिराम सिन्हा, सशस्त्र बल के विष्ण्ाु कुर्रे और विजय कुमार यादव शहीद हो गये।
बिजली विभाग की टीम का पुलिस सुरक्षा में जाना ही इस बात का सबूत है कि जंगल में नक्सलियों का राज कायम है! उनकी मर्जी के बिना जंगल में पत्ता भी नहीं खड़कता है। और सरकार फिर भी दावा करने से नहीं हिचकती कि उनकी सत्ता वहां कायम है। सरकार की इस खोखले दावे को पूरा करने में पता नहीं अब तक कितने जवानों ने अपनी जान गंवा दी है।
जवानों के शहीद होने का सिलसिला बस्तर में जारी है और उसी के साथ जारी है शहीदों को आखिरी सलामी देने की औपचारिकता पूरी करने का सिलसिला भी। पता नहीं क्यों पुलिस मुख्यालय के एयर कंडिशन्ड कमरों में बैठे अफसरों को अपनी वर्दी पर जवानों के खून की छिटें नजर नहीं आते। नेताओं की तो बात करना ही नहीं चाहिये क्योंकि उनके कपड़े तो लगता है कि दाग प्रूफ होते है। पुलिस के अफसरों को तो न केवल अपनी वर्दी बल्कि अपने चेहरे भी शहीदों के खून से रंगे नजर आने चाहिये ।
दरअसल इसमें अफसरों का दोष नहीं है। ऐसा लगता है कि साल में दो बार परेड की रिर्हसल करने की तरह उन्हें अब सलामी देने की भी प्रैक्टिस हो गई है । उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अधिकांश शहीद अफसर नहीं जवान होते है और उनकी दूर-दूर तक उनसे रिश्तेदारी नहीं होती।
हाँ, जिनकी रिश्तेदारी होती है उन पर जरूर दु:खों का पहाड़ टुट पड़ता है ! अब सूरनहेली हरियाणा के विजय कुमार यादव के परिवार के दु:खों की कल्पना करना भी कठिन है। हरियाणा से अपने परिवार की रोजी रोटी के लिये सशस्त्र बल में बस्तर आये विजय कुमार सबको छोड़कर जा चुके है, कभी वापस नहीं लौटने के लिये। उनके परिवार वाले अब विजय का नहीं विजय के शव का इंतजार करेंगे। ऐसा ही कुछ गुजरेगा नवागांव दुर्ग निवासी रतिराम सिन्हा और परसदा बिलासपुर निवासी विष्णु कुर्रे के परिवारवालों के साथ। पर क्या फर्क पड़ता है। ये तो अब लगता है सरकार और पुलिस के लिये रूटीन की बात हो गई है।
4 comments:
भैंस के आगे बीन बजाने पर कम से कम छत्तीसगढ़ में कोई फ़र्क पड़ते मैनें तो अब तक नही देखा हजूर!!
दूसरी बात यह कि छत्तीसगढ़ मीडिया का एक बहुत ही छोटा सा पुर्जा मैं खुद हूं इसके बाद भी यही कहना चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ मीडिया सिर्फ़ मौके-मौके पर इन मुद्दों पर लिख रहा है । अगर एक अभियान सा छेड़ दे तो इन "भैसों" के आगे ऐसी "बीन" बजाने से कुछ तो फ़र्क पड़ेगा। शायद पीएचक्यू और मंत्रालय में एसी की हवा खाते सुरक्षा से घिरे अफ़सरान और मंत्रियों की शाही नींद तब टूटे।
जवान मरते हैं मरते रहें निर्दोष जान गंवाते हैं गंवाते रहें "हमारी" सरकार तो बस विकास यात्रा में ही व्यस्त रहेगी।
shukra hai aapki nazre inaayat to hui
jawano ko mayra prnaam
jawano ko mayra prnaam
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