Wednesday, July 2, 2008

क्या पुलिस के 34 जवानों का लापता होना बड़ी खबर नहीं है ?

उड़िसा के मालकानगिरी इलाके के एक जलाशय में नक्सली हमले के बाद से 34 जवान लापता है उन जवानों को ढूंढने के लिए नौसेना, वायुसेना, पुलिस और ग्रेहाउंड पुलिस के 8 सौ जवान दिन-रात मेहनत कर रहे है। 28 जुन से लापता जवानों की सलामती के लिए अब सिर्फ दुआ ही की जा सकती है। इस हमले से एक बात साफ हो गई है कि नक्सलियों को तो पुलिस ऑपरेशन्स की खबर रहती है मगर पुलिस नक्सली मुवमेंट से अंजान होती है। नतीजतन आये दिन पुलिस के जवान नक्सली हमलों में शहीद हो रहे है।


वैसे इस हमले ने एक बात और साफ कर दी है। नेशनल न्यूज चैनल वालों की कथित संवेदनशीलता और जागरूकता की इस वारदात में पोल खोल कर रख दी। खुद की लापरवाही से बोरवेल के गढ्ढे मे गिरे बच्चे को बचाने के लिए हुये राहत कार्य को लाइव दिखाने वाले और बात-बात में सरकार की बखिया उधेड़ने वाले चैनल वालों के लिए शायद पुलिस के 34 जवानों की कीमत उतनी नही है। खैर उनकी अपनी मजबूरी है और अपनी प्राथमिकताएं भी। सैक्स, अपराध, राजनीति और खेल मे सिर्फ क्रिकेट से फुर्सत मिले तब ना। वैसे भी उनके लिए दिल्ली, मुंबई, उत्तरप्रदेश और गुजरात के दंगो के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा जैसे प्रदेशो की समस्याएं कोई मायने नही रखती। खैर जैसी उनकी मर्जी।


बहरहाल अब ये सरकारी तौर पर मान लिया गया है कि आंध्रप्रदेश और उड़ीसा की सीमा पर हुये नक्सली हमले के बाद से 34 जवान लापता है। आंध्रप्रदेश के गृहमंत्री ने भी इसकी पुष्टि की है। तीन जवानों की मौत हो चुकी है और दर्जनभर से ज्यादा घायल जवानों का इलाज जारी है। आंध्रप्रदेश पुलिस के विशेष रूप से प्रशिक्षित ग्रेहाउंड जवानों का दस्ता 28 जून की रात गश्त कर वापस लौट रहा था। उडीसा से आंध्रप्रदेश की ओर लौटते समय सीमा के करीब एक जलाशय को ये दस्ता मोटरबोट से पार कर रहा था। मोटरबोट जैसे ही एक उंची पहाड़ी के करीब पहुंची वहां पहले से ही घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने हमला कर दिया। उंचाई पर छिपे नक्सलियों के लिये मोटरबोट साफ्ट टारगेट थी। नक्सली पेड़ो के ओट से गोलियां बरसाने लगे इससे पहले जवान कुछ समझ पाते नक्सलियों का कहर मौत बनकर उनपर टूट पड़ा था। समाचार पत्रों के मुताबिक मोर्टार से भी गोले दागे गये और मोटरबोट डूबा दिये। जवानों ने तैरकर जान बचाने की कोशिश की कुछ तो सफल हो गये लेकिन 34 जवानों का अब तक अता-पता नही है।

दिल दहला देने वाली इस वारदात ने पुलिस के सूचना तंत्र की पोल तो खोली ही है उसकी गोपनीय कार्यप्रणाली पर भी सवालिया निशान लगा दिये है। इसके साथ ही एक बार फिर साबित हो गया कि पुलिस के सूचना तंत्र से नक्सलियों का सूचना तंत्र ज्यादा मजबूत है। काँम्बिंग गश्त से लौट रही पुलिस पार्टी को इस बात का रत्तीभर भी एहसास नही था कि वे ट्रेैप हो चूके है या ट्रैप हो रहे है। जबकि नक्सलियों का उस रास्ते मे सबसे उंची पहाड़ी पर घात लगाकर मोटरबोट का इंतजार करना इस बात का सबूत है कि उन्हे पता था पुलिस पार्टी वहीं से वापस लौटेगी। और फिर मोर्टार और रॉकेट लांचर से लैस टीम ये बता देती है कि पुलिस की स्ट्रैन्थ उन्हे मालूम थी।


इस वारदात में पुलिस ऑपरेशन्स की गोपनियता को भी सवालों के दायरे में ला दिया है। इसके साथ ही सबसे बड़ा सवाल उभर कर सामने आता है, वो है लोकल सपोर्ट का। गुरिल्ला पध्दति से काम करने वाले नक्सलियों को तो पूरा-पूरा लोकल सपोर्ट मिलता नजर आ रहा है, मगर पुलिस इस मामले में कमजोर दिखाई देती है। खैर ये गलती पुलिस की नही है लोकल सपोर्ट या स्थानीय लोगो का विश्वास जीतने का काम सरकार का होता है पुलिस का नही। बहरहाल दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में ऐसा चलता ही रहेगा। जवान शहीद होते रहेंगे, सरकार समीक्षा करती रहेगी। घड़ियाली आंसू भी बहाये जाएंगे मगर जिनके परिवार का सदस्य बिछड़ेगा उसका दर्द वे ही बता पाएंगे जैसे लापता 34 जवानों के परिवार वाले।

9 comments:

समयचक्र said...

गुरिल्ला पध्दति से काम करने वाले नक्सलियों को तो पूरा-पूरा लोकल सपोर्ट मिलता नजर आ रहा है, मगर पुलिस इस मामले में कमजोर दिखाई देती है . मगर जिनके परिवार का सदस्य बिछड़ेगा उसका दर्द वे ही बता पाएंगे .

bada dukhad samachaar diya apne .

Unknown said...

मुखबिरों को देने के लिये गृह विभाग का एक "सस्पेंस अकाउंट" होता है जिससे करोड़ों रुपया आता-जाता है, लेकिन यह किसकी जेब में जा रहा है यह जाँच का विषय है, क्योंकि "इंटेलिजेंस" की अक्षमता तो जाहिर हो ही चुकी है…

सतीश पंचम said...

Situation is really critical.

Udan Tashtari said...

दुखद!

admin said...

आप सही कहते हैं। दरअसल हम ऐसे निष्ठुर समय में रह रहे हैं कि बगैर अपने पैरों में बिवाई फटे दूसरे का दर्द समझ ही नहीं पाते।

राजीव रंजन प्रसाद said...

अनिल जी,

आपका शीर्षक आपके आलेख की तरह ही गंभीर है।

जवान समसे सस्ती मौत मरते हैं और कोई उन बेचारों का फिर नामलेवा नहीं रहता। एसे संवेदनशील विषय मीडिया को उठाते हुए पेट में दर्द होने लगता है जब कि कोई "सेन" कोई "राय" वहाँ आ कर खबर चटखरेदार हो जाते हैं...

कहीं कोई जिम्मेदार मीडिया जैसी भी चीज है इस देश में? नक्सलरहित देश के सपने को कौन प्रचारित करेगा? किसकी जिम्मेदारी है यह?

रीढ की हड्डीविहीन इस देश का यह कडुवा सच है।

***राजीव रंजन प्रसाद

Shiv said...

ऐसी घटनाएं होने पर हम नक्सली समस्या की जड़ तक पहुचने के लिए सेमिनार कराने में बिजी हो जाते हैं. सरकार के लिए नक्सलियों की समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है. रहेगी भी कैसे? हमारी सरकार को समर्थन देने वाले वामपंथी नेपाल के माओवादियों के नेता से दिल्ली में मिलते हैं. गृह मंत्रालय के जरिये रा ऐसी मुलाकात करवाने का काम करती है.

अब ऐसे में हम कैसे मान लें कि नक्सलियों की समस्या पर सरकार कुछ करना चाहती है. कहाँ हैं मानवाधिकार वाले? शायद पुलिस वालों को मानव नहीं समझा जाता.

dpkraj said...

आपने संवेदनीशील मुद्दे को प्रभावपूर्ण ढंग से उठाया है और इस पर लोगों को विचार करना चाहिए कि यह संवेदनहीनता अंततः सभी के लिये घातक होने वाली है।
दीपक भारतदीप

Anil Pusadkar said...

aap sabhi ne mere,mere pradesh ke aur wanha,roz mar rahe jawaanon ke pariwar waalon ke dard ko samjha,aapka badappan hai.aapki pratikriya mujhe likhne ki taqat degi.bhawishya me bhi isi pyar aur aashirwad ki kaamna karta hun