Thursday, July 10, 2008

रविश जी, हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है।

आज एनडीटीवी के रविश कुमार का ब्लाग पढ़ा। एक अच्छे पढ़े लिखे सुलझे और समझदार पत्रकार को प्रिंट मीडिया को कोसते देख अटपटा-सा लगा। उन्होंने अखबारों में लड़कियों के तस्वीरें छापने पर अंगुली उठायी उसी के साथ तीन अंगुलियां उनकी तरफ खुद ब खुद उठ गई। क्या उन्हें इलेक्ट्रानिक मीडिया में सेक्स, अपराध, जादुटोना और ज्योतिष की खबरों का फैलता साम्राज्य नजर नहीं आता। रविश जी दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाली लड़कियों की फोटो अखबार में छपी तो आप को याद आया कि सिर्फ लड़कियां ही नहीं लड़के भी प्रवेश लेते है। आपको तब नजर आया कि प्रिंट मीडिया के फोटोग्राफर एक ही रंग की खूबसूरत लड़कियों की सेक्सी तस्वीरें खींचकर छापते है। क्या आपने कभी सोचा है कि फैशन शो में रैंप पर मॉडल का कपड़ा एक बार फिसलता है और इलेक्ट्रानिक मीडिया एक ही बुलेटिन में कई-कई बार दिखाता है। क्या ये सेक्स बेचना नहीं है।

आपने अखबारों में बंगाली बाबाओं के विज्ञापनों को भी निशाने पर लिया है। बिलकुल सही कहा आपने , ऐसा नहीं होना चाहिए। ये गलत बात है और इससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता। आपने अखबारों पर विज्ञापन के दबाव को इसका कारण बताया। आप विद्वान है और इस नाते आपकी याददाश्त भी काफी तेज होगी। आप अगर भूले न हो तो मैं आपको होण्डा स्कूटर के कर्मचारियों की हड़ताल का वाक्या याद दिलाना चाहूंगा। हड़ताली कर्मचारियों पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया था। उस खूनी मंजर को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सारे देश के सामने रखा था और पुलिस को बर्बर और अमानवीय बताया था। कुछ घंटों बाद ही उसी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पुलिस के लाठीचार्ज की वकालत करते हुए उस घटना को मजदूरों की उकसाने वाली कार्यवाही साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।इलेक्ट्रानिक मीडिया की नजर में बर्बर पुलिस दो घंटे में ही निरीह कैसे हो गई और निरीह मजदूर क्रूर कैसे हो गया। विजुअल कैसे बदले क्या ये बताना पड़ेगा। क्या उस खबर का एकदम से बदल जाना विज्ञापन का प्रभाव नहीं था।

माना प्रिंट मीडिया लड़कियों की तस्वीरें छापकर गलती कर रहा है। तो क्या उस गलती को ठीक करने के बजाय आप भी वहीं गलती करेंगे। साल में एक बार प्रवेश के दिन लड़कियों की तस्वीरें छपने पर आपको इतना खराब लग गया और साल में दर्जनों बार आप सड़ीगली, घिसीपिटी फिल्म स्टारों की प्रेम कहानियां दिखातें है तो कुछ नहीं। संजय दत्त की यरवदा जेल यात्रा आप लाइव दिखते रहें क्या आपको लगता है कि संजय दत्त ने कोई महान काम किया था। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि टाडा के आरोपी संजय दत्त के यरवदा जेल में बिताये क्षणों को विजुअल के अभाव में ग्राफिक्स के जरिये दिखाना एक अपराधी का गुणगान करना है। क्या संजय दत्त बापू महात्मा गांधी जैसा महान है जो यरवदा जेल यात्रा का इस तरह बखान किया गया। मान्यता जिसके विवाह को आजतक मान्यता नहीं मिली है उसका संजय दत्त की कार के साथ-साथ पुणे जाना दिखाना जरूरी था। मान्यता आखिर है कौन? क्या दूसरी, तीसरी, चौथी पता नहीं कौन सी शादियों को लाइव दिखाना भारतीय संस्कृति है। बड़ा बुरा लगा आपको प्रिंट के फोटोग्राफरों ने जो दिल्ली विश्वविद्यालय की खूबसूरत लड़कियों की तस्वीरें खींच ली।

बुरा तो भाई साहब आपको तब लगना चाहिये था जब मामूली-से बंद को आप देशव्यापी बना देते है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के पहले दंगों की खबरें प्रिंट मीडिया इस तरह प्रकाशित करता था कि उसका दूष्प्रभाव आसपास के इलाकों में न फैले। पर इलेक्ट्रानिक मीडिया तो दंगों की खबरों को ऐसे परोसता है कि जहां शांति हो वहां भी बवाल हो जाते है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है गोधरा के बाद पूरा गुजरात जल उठा था। अगर ये बात पूरानी लगती हो तो हाल में हुए जम्मू बंद के समर्थन में भारत बंद के दौरान आपने इंदौर की खबरें लाइव की। इससे पहले मालवा शांत होता इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उसे भड़का दिया और कई लोग जान से हाथ धो बैठे। इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही देन है जो आज पुराने समय के सांप्रदायिक शहर अलीगढ़, लखनउ, भिवंडी, हैदराबाद जैसे दंगाइयों के स्वर्ग को इंदौर जैसे शांत इलाके में पिछे छोड़ दिया है।

हो सकता है आपको मेरी बातें बुरी लगे। मैं ये सब इसलिये कह रहा हूॅ कि मैने प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों की ही मजबूरियों को नजदीक से देखा है। आप रायपुर आये थे तब आपसे मुलाकात भी हुई थी। आपको शायद याद भी न हो क्योंकि आप बड़े शहर के बड़े चैनल के बड़े रिपोर्टर है। खैर एक ही मुलाकात में मुझे लगा था कि आप अच्छे पत्रकार है और इस नाते अच्छे इंसान भी होगें। लेकिन आज आपका प्रिंट मीडिया को कोसना अच्छा नहीं लगा। क्या आपको नहीं लगता कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के पास बड़े शहरों की खबरों को प्रमुखता से दिखाना मजबूरी है। क्या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के आंदोलन सलवा जुड़ूम के शिविर पर नक्सलियों का हमला राष्ट्रीय खबर नहीं है। क्या डेढ़ साल के बच्चे की गला रेंतकर हत्या बड़ी खबर नहीं है। क्या उड़ीसा के मलकानगिरी में नक्सली हमले में 38 जवानों की मौत की खबर सिर्फ ब्रेकिंग और स्क्राल की खबर है। क्या खेल में सिर्फ क्रिकेट ही खेल है। क्या आपको नहीं लगता खेल संवाददाता खिलाड़ी विशेष को टीम में जगह दिलाने के लिये अभियान चलाते है। क्या चीअर लीडर की अश्लीलता सिर्फ आईपीएल में ही नजर आई, आईसीएल में उन्हीं पोशाकों में नाचती-झूमती चीअर लीडर इलेक्ट्रानिक मीडिया को नजर नहीं आई।
जाने दो भाई साहब मैं बोलूंगा तो बोलोगे के बोलता है। बहुत कुछ है बोलने को । अगर प्रिंट मीडिया गलत कर रहा है तो इसका मतलब ये कतई नहीं है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया भी वहीं करे और अगर प्रिंट मीडिया गलत है तो इलेक्ट्रानिक मीडिया भी उतना ही। सवाल इस बात का नहीं है कि कौन कितना गलत है सवाल इस बात का है कि कौन पहले अपनी गलती मानकर सुधरता है। आज सारे देश की निंगाहे लोकतंत्र के स्वमभू चौथे खंभे पर टिकी हुई है। लोकतंत्र के तीन खंभों को जनता खड़खड़ाते देख रही है ऐसे में उसकी उम्मीदें चौथे खंभे पर ही टिकी हुई है। उम्मीद है चौथा खंभा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के झगड़ों से कमजोर नहीं होगा।

14 comments:

Anonymous said...

खरी बात है अनिल जी लेकिन रविश जी को खोटी लगी होगी, सुना होगा

'छलनी बोली सूप से, तुझमें सौ-सौ छेद'

Anil Pusadkar said...

shukra hai kisine to samjha meri bhavanayon ko.dhanyawad aapki pratikriya mera utsah badhati rahegi

sushant jha said...

अच्छा लेख...और निर्भीक तेवर...जारी रहिए...

Unknown said...

बहुत हि बेबाक आपने सच को सामने रख दी. कुछ लोग सोचतें हैं कि जो हम लिख दिये बस सच वही है. दुनिया कि भी सोच वही है जो हम सोचतें हैं. ये वही जनाब हैं जिन्हे गोवा मे परशुराम कि मुर्ती मे दोष नजर आयी लेकिन वहां सैकडो चर्चो मे कुछ नजर नहीं आयी. इन्हे दवा मे जाती नजर आयी. जिसने दवा लिखा उसे जातीवादी करार दिया लेकिन जिसने देश कि सबसे बडी दवा कंपनी की दवा इसलिये नहीं लिखी क्योंकी वो एक विशेश जाती के वयक्ति कि कंपनी है उसमे जातीवाद नजर नहीं आयी. वाह रे हमारे नयन तुम मेरे विचारों से कैसे सामन्जस्य बनाये रखते हो. तुम्हे वही नजर आतें हैं जो मेरे विचारधारा को पसंद हैं.
आपने एक लाईन मे ही सब कह दिया कि एक उंगली उठाने पर तीन उंगलियां खुद की तरफ इसारा करतीं हैं.

संजय शर्मा said...

बहुत ही जानदार आलेख , दमदार तेवर के साथ ! ये तेवर बरकरार रहे ! शुभकामना ! प्रिंट का पक्ष को पुरजोर तरीके से रखा शुक्रगुजार हूँ.

Unknown said...

देखिये भाई साहब - टी वी चैनल में क्या क्या होता है - सबको पता है :) आप एक बार रविश जी के दफ्तर चले जाइये - वहां एक से बढ़कर एक खुबसूरत बालाएं सिगरेट के धुँए के बीच मिलेंगी ! फ़िर सज धज के उभार को दिखाते हुए - कैमरा के सामने :)
यह सब रविश बाबु को नज़र नही आता है और क्यों आएगा ? सूअर को गन्दगी नज़र नही आती है !
चीन से पैसा खा कर - मस्त हैं :)

شہروز said...

वही तेवर जो अनील पुसदकर नाम के किसी पत्रकार में हुआ करते थे .चलो अब और अच्छाई बात है ,समय और क्रूर और हम और ज्यादा दरिन्दे हुए हैं.
आप hamzabaan पर आये शुक्रिया.हमने आपका लिंक दे दिया है समाचार-पत्रिका शीर्षक के साथ .लोगों को आप तक पहुचने में hamzabaan के मार्फ़त सुविधा होगी .
भाई साहब परस्पर सहयोग बनाए रखें.

Som said...

We all, journos, (either Print or Electronic) should realise that we are not performing our responsibilies towards our society. So, we all share concern on image-of media in society and initiate some reform process with mutual respect to each other.

It's good to read Anil Ji's Blog.

Anil Pusadkar said...

dhanyawad aap sabhi ka mere vichaaron ko samajhne ke liye.aap sabhi ke pyar ne meri taqat aur badha di hai,ye pyar hamesha bana rahega,isi wishvaas ke sath

Anonymous said...

anilji bahut khoob....aapne sahi kaha.. lekin channelon ki bheed mein NDTV mera pasndeeda khabariya channel hai .kyonki yah khabaren dikhata hai.. manoranjak karyakram nahin. isliye thoda sa dukh bhi hua apne pasandeeda channel ke baarey mein sunne ke baad .

ek aad baar ek botal sharab aur 500 rs/ mein randiyon ki tarah bikti akhbari patrakarita par bhi likhiye. kyonki yah anubhav mera raha hai. akhbaar mein khabar chapwane ke liye ek botal sharab aur 500 rs// aur rukwane ke liye ise double kar deta hoon..aapse ek aise krantikaree lekh ki umeed karta hoon jisse patrakarita ka star nahin ,to kam se kam, khabaren chapwane aur nahin chapwane ki keemat to mere patrakaar sathi sudharen.shukra hai channels mein khabar chapwane aur rukwane ke liye aise halaat filhaal nahin hain.

aapke krantikari lekhon ko padkar lagta hai ki patrakarita bhai bachi hai. lekin yah blogs mein hi nahin akhbaron mein bhi dikhni chahiye.

उमेश कुमार said...

पुसदकर जी आपने जो कहा वह सोलह आने सच है लेकिन उन्हे क्या कहे जिन्हे आंख होते हुए भी दिखाई नही देता।यह रविस जी को भी मालुम है की प्रिन्ट मीडिया आज भी टीवी चैनलो से थोडा ज्यादा जिम्मेदार है। कलम चलाने के बाद भी कलमकार सम्पादन कर सकता है लेकिन जुबान से निकली आवाज लौट कर नही आती। आज जादु टोना,सेक्स कहानी तथा नंगी माडलो के पैरोकार बन कर टीवी पत्रकार पत्रकारिता को कलंकित कर रहे है।

जयप्रकाश मानस said...

मनुष्य कई स्तरों पर जीता है । रवीश या कोई भी कोई देवता नही जो एक ही स्तर पर जीता हो । तो सबसे पहले रवीश जैसी काया और उसकी माया को लेकर मुझे कोई गुरेज़ नही है । फिर भी कुछ बात है जो मुझे लगता है इस समय कहना ही चाहिए । मैं उसे सिलसिलेवार कहना चाहूंगा ।

1. मीडिया के लोग अपने आप को ताज़दार समझ बैठे हैं उसमें प्रिंटवाले को इलेक्ट्रानिक्स वाले को पीछे छोड़ रहे हैं । वे एक तरह स बेहया हो चुके हैं । लगता है उनका कोई माँ-बहन है ही नहीं । केवल चाक्षुस के वृत में घुमते रहो । दुनिया चाहे भाड़ में । रवीश भी इसी के शिकार हैं । वे बच कैसे भी सकते हैं । कोई देवपुरुष तो हैं नहीं । यह अलग बात है कि मीडिया में देवत्व को फिर से दिखाने की गुंजायस है । पर दिल्ली के लोगों को कुछ कम ही सोचना होता है । वे तो केवल गर्म और उत्तेजना की कमाई खाते हैं । रवीश और रवीश जैसा हर मीडियाकार यही कर रहा है । पर दिल्लीवाले यदि यह समझते हैं कि वे ही नये समय की रचना करेंगे तो बहुत बड़े मुगालते मैं हैं । उनकी कमजोरी और नादानी को सारी दुनिया और कम से कम भारतीय जनता और इतना भी नहीं तो कम से कम भारतीय मीडिया तो जानती ही है । सो रवीश को माफी दिया जाय । लिखना था कुछ भी सो लिख दिये । फिर अनिल जी मैंने पहले भी कहा कि कोई भी मनुष्य कई स्तरों पर ही अपने होने को गति देता है ।

3. चाहे वह रवीश हो या कवीश, यहाँ हर कोई दूसरों के लिए उपदेशक की भूमिका ही चुनता है । जैसे उसे कुछ भी नहीं करना हो । जैसे सारी दुनिया को ठीक करने का ज़िम्मा किसी और के कांधे पर हो । रवीश और उसके जैसा हर मीडियाकर इसी अंहकार का शिकार है । और यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है । बचना या ना बचना उसी के ही वश की बात है ।

3. इलेक्ट्रानिक दुनिया और उसमें विन्यस्त मीडिया की सबसे बड़ी कमी है कि वे सोचते हैं कि वे संचार और इसी बहाने दुनिया के सबसे बड़े नियामक हैं - यह सरासर ग़लत है । वे मुगालते में हैं । मै एक कहानी बताऊँगा । प्रांसगिक जानकर । मेरे नाना जी तो अब रहे नहीं । पर जब तक थे ऐसे मीडियावालों को नादान कहते थे और भारतीयता और इतना ही नहीं समय के सबसे बड़े दुश्मन मानते थे । अनिल जी मैं सच बताऊँ ऐसे वक़्त लगभग ख़खारते हुए रिमोट को छीनकर स्वीच ऑफ भी कर देते थे । इसका मतलब यही है कि ऐसे पत्रकार और ऐसी मीडिया ग़लतफ़हमी में जीते रहते हैं कि वे समूचे देश को अपना कृतित्त्व दिखा रहे हैं । यानी कि वे सारे देश के नामी मीडियाकर हैं । यही उनकी सबसे बड़ी क़मजोरी है । और वे इसी क़मजोरी के कृष्णपक्ष को ही चाँदनी रात समझते हैं । इन्हें मुआफ़ करना ही इन्हें सर्वोचित होगा ।

4. प्रिंट को इन्होने ने ही दबाब मे रखा है । वैसे ये मुलतः देहवादी हैं । इनका लक्ष्य विजुअल है । शब्द नहीं । शब्द के पीछे का अर्थ नहीं । केवल अर्थ यानी कि मुद्रा और देह के ही ये दीवाने हैं । और इसके पीछे टीआरपी और उनकी व्यवसायिकता भी कम ज़िम्मेवार नहीं । क्या करें बेचारे दो रोटी के लिए दूर देश से दिल्ली के गुलाम हैं । करें तो क्या करें । रोटी तो जुगाड़ना ही है इन्हें । जो भी है ये ज़्यादा दिन के मालिक नहीं । हम सभी इनकी करतूतों को भाँप चुके हैं ।

आपका आलेख या टिप्पणी बहुत सामयिक और एक उत्तेजना के क़रीब वाला है । और यह गति जारी रहे ।

आप जैसे लोग ऐसे लोगों को रास्ता दिखा सकते हैं।

बधाई दिल से ।

Anonymous said...

Anonymous ji,
अनिल ji भी वही कह रहे है . की टीवी वाले ज्यादा भ्रष्ट है .पॉँच सौ रुपए और और एक शराब की बोतल में प्रिंट रंडी हो जाता है , तो इलेक्ट्रॉनिक मिडिया ५० हज़ार और महँगी शराब लेकर रंडी नही बनता क्या ? मोटे भावः के कारण तुम कॉल गर्ल कहला सकते हो .
प्रजा तंत्र के चारो स्तम्भ में से एक भी स्तम्भ सही हो जाय तो देश सुधर जाय .
साले टीवी के गांडू ,गाड़ में टॉर्च जलाकर छोड़ देंगे अगर दुबारा इधर आया तो .समझे Anonymous ji,

अनिल भाई आप अपने दिल बात कहते रहिये .ये साला रविश का कुता है .

Anonymous said...

शहर का पागल सांड किसके पिछवाडे घुसेगा किसे पता ? अखबारों के लायक नहीं रहे . और टी.वी. में नालायक साबित हुए .. अब क्या करें ? अपने से बड़े पर कीचड़ उछालो और नाम कमाओं....
रविश ने अपनी पत्रकारिता में बहुत अच्छे काम किया है उससे कुछ सीखो.. आसमान में थूकने का मतलब तो आप जानते ही हो ना ""अनिल""