उड़ीसा में नक्सली वारदात के बाद गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा था कि राज्यों का सूचनातंत्र कमजोर है। अब जबकि बैंगलोर और अहमदाबाद में धमाके हो चुके हैं और सूरत में बम मिला है, तो क्या वे इस बात को मानेंगे कि देश का सूचना तंत्र कमजोर नहीं खोखला है।
मलकानगिरी में नक्सलियों ने पिछले माह दो बड़ी वारदात की थी। 1 में 38 तो दूसरी में 20 जवान शहीद हुए थे। उसके बाद 18 जुलाई को कानपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस में गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने बढ़ती नक्सली वारदातों पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि उन पर अंकुश लगाने के लिए राज्यों की पुलिस को अपना सूचनातंत्र मजबूत करना पड़ेगा। उस बयान के बाद मैंने अपने ब्लॉग पर उनसे सवाल किया था कि इसका मतलब सूचनातंत्र कमजोर है ना मंत्री जी। संदर्भ था राज्यों की पुलिस का।
राज्यों के सूचनातंत्र की कमजोरी को तो बड़ी सहजता से हर कोई स्वीकार कर लेता है लेकिन क्या ये सोच का विषय नहीं है कि हमारे देश का सूचनातंत्र बेकार हो चुका है। सूचना या खूफिया एजेंसियों का इस्तेमाल राजनेता अपने व्यक्तिगत और पार्टिगत हितों के लिए कर रहे हैं। ऐसे में देश में कहाँ बारूद बिछाया जा रहा है ? कहाँ पलीते सुलगाए जा रहे हैं ? किसे पता चलेगा।
बड़ा आसान होता है केन्द्र सरकार के लिए राज्य सरकारों को कोसना। लेकिन अब जब देश के 2 बड़े शहरों में सीरियल ब्लॉस्ट हो चुके हैं और 1बड़ा शहर धमाकों का शिकार होते-होते बचा है, तब ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार के गृहराज्य मंत्री को अपने ही बयान फिर से पढ़ना चाहिए। एक नहीं कई बार पढ़ना चाहिये और उसके बाद सोचना चाहिए कि क्या ये बयान उनके अपने मंत्रालय के लिए शत-प्रतिशत फिट नहीं बैठता।
खैर क्या फर्क पड़ता है श्रीप्रकाश जायसवाल को, या शिवराज पाटिल को या मनमोहन सिंह को। उनके शहरों में नहीं हुए हैं ये धमाके। फिर इस देश को साम्प्रदायिक सौहाद्र का डोज देकर ऐसे धमाकों का दर्द झेलने की आदत डाल दी गई है, एडिक्ट हो गए हैं हम धमाकों के। इससे पहले भी मुंबई से लेकर हैदराबाद तक धमाकों की गूंज सुनी जा चुकी है। सभी उस दर्द को भूले नहीं हैं। दरअसल हमारे जैसे आम लोगों को आदत हो गई है दर्द सहने की। खास लोगों को तो दर्द सहे बिना सेक्रेटरी का लिखा-लिखाया बयान पढ़कर दर्द बयां करना आता है। दर्द सहना उनका नहीं आम लोगों का काम है और फिर दर्द न हो तो जीने का मतलब ही क्या है ? बरसात होती है तो छत टपकने का दर्द, गली-नाली भर जाने का दर्द, बीमारियाँ फैल जाने का दर्द और जाने कैसे-कैसे दर्द। बरसात नहीं हुई तो सूखे का दर्द, अकाल का दर्द, पलायन का दर्द, भूखमरी का दर्द और अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो फिर है हमारे लिए रेडिमेड बम धमाकों का दर्द। पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा इससे। कब जागेगा हमारे देश का इंटेलिजेंस ब्यूरो, कब फुरसत मिलेगी हमारे सत्ताधारियों को। हो सकता है कि जब तक ये जागे तब तक हमें नया दर्द मिल जाए।
11 comments:
एडिक्शन की बात सही उठायी आपने. अब तो जैसे रोजमर्रा की बात हो गयी है. कुछ दिनों में आतंवादी कहा करेंगे छोड़ो यार, रोज-रोज विस्फोट करने से क्या फायदा. कोई फर्क ही नहीं पड़ता.
behad spasht roop se likh diya apane
भारत का सूचनातंत्र कमजोर नही, लेकिन उसे पंगु बना दिया हे,हमारे गुण्डा नेताओ ने, अपने मतलब के लिये, अपनी वोटो के लिये देश को ......
छुटकारा मिलेगा, जरुर मिलेगा छुटकारा,उस दिन जब यह अजगर जिन्होने पाला हे इन्हे ही हजम कर जायेगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी,इस समय तो पुरा देश ही कमजोर हे...
भारत एक सॉफ्ट स्टेट है। अभी आतंक पर नकेल कसने लगे तो कई मानवाधिकारवादी पांय-पांय करने लगेंगे!
सवाल सूचनातंत्र का ही नहीं है - सूचना पर अमल करने की संकल्पशक्ति का भी है।
आज भारत ही नहीं पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में आ चुका है। इस तरह का घिनौना काम करने वाले इंसान कहलाने के लायक भी नहीं हैं। शर्म आती है जिस तरह से भारत में आतंकवादी हमलों में तेज़ी आई है और सुरक्षा तंत्र इसे रोक पाने में असमर्थ रहा है। दोष तो व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार का है। वैसे रही-सही कसर नेतागिरी पूरा कर देती है जो ऐसी घटनाओं का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करते हैं।
suchana mil bhi jaye to kya.neta log kuchh karne den tab na.
देश आतंकवाद से कैसे निपटता है, यह निर्भर करता है उसके राजनेताओं की सोच पर। अमेरिका पर एक हमला हुआ, और बुश दुनिया भर की तोपें लेकर पहुंच गये इराक। हमपर ५० साल से हो रहे हैं हमले, लेकिन हमारे शासकों को कोई फिक्र नहीं है, क्योंकि संसद में रहते-रहते नोटों की गड्डियां तो बंटती ही रहेंगी। यदि भारत को आतंकवाद से निपटना है तो यह कोई सरदार पटेल जैसा लौहपुरुष ही कर सकता है, कोई राजनेता नहीं।
आपकी बातो से सहमत हूँ, आज हमारा सूचना तंत्र इतना कमजोर नही है जितना कि हमारा लोकतंत्र और लोकतंत्र में बैठी सरकारें।
सूचना तंत्र बिल्कुल काम नहीं कर रहा है....हाँ, सूचना मन्त्र का सहारा लिया जा रहा है.
सूचना तन्त्र जैसी कोई चीज तो है नही ....वैसे भी पुलिस विभाग में ऐसे सरकारी लोग है जिन्हें ट्रेनिंग का अभाव है....ओर कोई नई व्यवस्ता ऐसी नही की उनकी पोलोस अकेडमी में नए कोर्स लागू हो ....सिर्फ़ कागजी खानापूर्ति है....
न हम कमजोर है न हमारा सूचना तन्त्र कमजोर है, हम तो आलसी है सोए रहते है, घटना घट जाने के बाद जागते है...
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