वो गुस्से से कांप रहा था। उसने सवाल किया, बताओ बस्तर में सिर्फ पुलिस वाले ही क्यों मरते हैं। क्या मरने का ठेका सिर्फ पुलिस के पास है, वो भी जवानों और छोटे-मोटे अफसरों के पास है। बड़े अफसर या नेता, मंत्री क्यों नहीं मरते। पता है सब टैक्स देते हैं जिन्दा रहने का। वो भी आपकी सरकार को नहीं नक्सलियों को।
मैं खामोश ही रहा और वो बोलता चला गया। वो बोला क्या वहां रेवेन्यू, वन, पी.डब्ल्यू.डी., शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग के सरकारी अफसर काम नहीं करते। क्या ये लोग नक्सलियों के रिश्तेदार हैं। क्या ये लोग भ्रष्ट नहीं हैं। क्या ये लोग अन्याय नहीं करते। क्या ये लोग साम्यवादी व्यवस्था के विरोधी नहीं है। क्या ये लोग पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक नहीं है। फिर क्यों नहीं नज़र पड़ती नक्सलियों की उन पर। पता है न एक बार पूर्व राज्यपाल ने कह दिया था कि गरीब आदिवासियों से नमक देकर चिरौंजी खरीदी जा रही है। आप लोगों ने खूब हल्ला किया था। और वो कोई झूठ नहीं था, सच ही था। इतना शोषण कहीं और नहीं होता होगा इंसानों का इंसानों द्वारा। इसी शोषण को तो मिटाने आए थे नक्सली। अब क्या कर रहे हैं वो पता है। हर गांव से जवान लड़के मांग रहे हैं भर्ती के लिए। क्या कर लोगे, रोक पाओगे। नहीं न। इसीलिए बढ़ रहे हैं नक्सली और उनका संपर्क सूत्र मजबूत होता जा रहा है।
पुलिस वाले क्या लूटेंगे बस्तर में। वहां तो पहले ही लुटे-पिटे लोग रहते हैं। लूट-खसोट तो मचा रहे हैं दूसरे सरकारी अफसर। लेकिन नक्सलियों को ये शायद कभी नज़र नहीं आएगा। कारण मंथली टैक्स मिल रहा है हर जगह से। कभी सुना है आज तक कि किसी भ्रष्ट इंजीनियर, डॉक्टर, लेक्चरर या सरकारी अफसर को मारा है नक्सलियों ने। नहीं न। क्यों मारेंगे उनको। मारने के लिए है न गरीब पुलिस वाले। बस मारे जा रहे हैं उनको। और पुलिस में भी मरता कौन है। नया-नया जवान, ज्यादा हुआ तो हवलदार और बहुत ज्यादा हुआ तो सब इंस्पेक्टर। एक भास्कर दीवान को छोड़ दें तो कोई बड़ा अफसर आज तक नहीं मरा। भास्कर दीवान अच्छा इंसान था और अच्छा अफसर भी। वो अपने स्टॉफ को अपने परिवार जैसा मानता था। वो आगे चलता था या उनके साथ चलता था, उनके पीछे कभी नहीं। इसीलिए शहीद हुआ वो। वैसे ही जैसे मोहन चंद शर्मा अपने हवलदार को पीछे रख खुद आगे चलकर नेतृत्व कर रहे थे। भास्कर दीवान भी मोहन चंद शर्मा की तरह शहीद हो गए थे। उनकी तकदीर अच्छी थी, जो उस समय अमर सिंह जैसे घटिया नेता और आप लोग जैसे उसके दलाल पत्रकार नहीं थे। वर्ना भास्कर दीवान की शहादत पर भी सवाल उठा दिए जाते, कि इतना बड़ा अफसर क्यों गया था जंगल में। वो तो भास्कर दीवान की दिलेरी थी जो खुद गश्त पर साथ चलता था, वरना आजकल के अफसर पता है गश्त करते जवानों की पीछे चलते हैं। वे भास्कर दीवान की तरह अपनी टीम को अपना परिवार नहीं मानते। वे उन्हें जंगल में शिकारियों द्वारा शिकार तलाशने के लिए छोड़े गए कुत्तों से ज्यादा कुछ नहीं समझते थे। जहां तक जवान सकुशल जाते हैं, रास्ता क्लीयर है मानकर साहब लोग पीछे आते हैं। अगर कुछ हो गया तो मदद बुलवाते हैं मोर्चे पर नहीं। ये सब शहर में बैठकर जंगल की रणनीति बनाते हैं। ये नहीं मरने वाले।
मैंने कहा ऐसा नहीं.........मेरी बात बीच में ही काट दी उसने और कहा ऐसा नहीं, नहीं, ऐसा ही हो रहा है। क्यों नहीं मर रहे मंत्री और नेता। वो भी तो नक्सलियों की हिट लिस्ट में हैं। सालों हो गए सुनते कि नक्सलियों से उनको खतरा है और आज तक वे खतरे में नज़र आए नहीं। मस्त घूमते हैं अपनी विधानसभा में। आगे-पीछे जवानों से भरी गाडि़यां चलती हैं। कुछ होगा तो जवानों को। साला चारा समझ लिया है जवानों को। सिर्फ बस्तर का ही ये हाल नहीं है भैय्या मैं सारे देश की बात कर रहा हूं। क्या दिल्ली में आतंकवादियों को आम आदमियों की भीड़ वाले बाज़ार ही नज़र आ रहे हैं। रेल में भी बम लगाते हैं तो लोकल ढूंढते हैं और उसके भी जनरल डिब्बे हैं। क्या देश में राजधानी एक्सप्रेस या और कोईं सुपर एक्सप्रेस नहीं चलती। क्या महानगरों में बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल नहीं हैं। क्या महानगरों में नेताओं की मंडी नहीं है। एक बार तो नेताओं की मंडी में पहुंच भी गए थे, दोबारा ट्राइ कर लेते। क्या उनको भी मारने के लिए आम आदमी ही मिल रहे हैं। बाज़ार में खरीददारी करने जाने वाला आम आदमी मरता है या फिर कभी-कभार देशभक्ति का जज़्बा लिए अपने स्टॉफ को अपने पीछे रख आतंकवादियों की गोलियों का सामना करने के लिए अपना सीना तानकर आगे जाने वाला मोहन चंद शर्मा। और उस पर भी आप और आपके भाई-बंधु अमरसिंह जैसे दलाल की दलाली करते हो। बताओ इस देश में इससे ज़्यादा अफसोस की बात क्या हो सकती है कि एक शहीद की शहादत के लिए उसके स्टॉफ को उसकी सफाई में गवाही देनी पड़ रही है। धिक्कार है इस देश की राजनीति और पत्रकारिता पर।
मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था लेकिन वो बात खरी-खरी कर रहा था इसलिए मैंने खामोश रहकर ज़मीनी हक़ीकत को जानने में ही भलाई समझी। धीरे-धीरे नीचे होती निगाहों को वो भांप रहा था। वो बोला क्यों क्या हुआ। हो गई बोलती बंद। कभी स्पॉट रिर्पोटिंग भी किया करो। हमेशा सूत्रों के भरोसे कहानी किस्से मत गढ़ा करो। कानों से ज़्यादा अपनी आंखों पर भरोसा करो। मैं आपको पत्रकारिता नहीं सिखा रहा हूं। लेकिन मैं आज की पत्रकारिता को बहुत अच्छे से जानता हूं। और फिर आप लोगों के हाथ में तो कुछ होता भी नहीं। आप तो क्या आपके संपादक के हाथ में भी कुछ नहीं होता। संपादक भी पहले विज्ञापन मैनेजर या फिर जनरल मैनेजर से बात करता है। वो जमाना गया जब पत्रकार बड़ा होता था अब मैनेजमेंट का ज़माना है और मैनेजमेंट हमेशा सरकार से मैनेज रहता है। मैंने कहा बहुत जानकारी इकट्ठा कर रहे हो पत्रकारिता की। वो बोला ज़रूरत नहीं है इकट्ठा करने की। बस्तर में जब हम लोग संवादाताओं को ख़बर देते थे और दूसरे दिन नहीं छपने पर वो आकर आप लोगों की औकात बता देते थे। क्या मैं झूठ बोल रहा हूं। आप लोग तो लोकल हो। मैं नेशनल की भी हालत जानता हूं। मैं खामोश ही रहा। वो बोला गुजरात या तनाव ग्रस्त इलाके में एक आदमी मरता है तो दिन भर कुत्तों की तरह भौंकते हो आप लोग। राजठाकरे के गुर्गें अगर 5 टैक्सी वालों को पीट देते हैं तो सारे देश को सर पे उठा लेते हो आप लोग। आप लोगों की ओबी वैन की रेंज में कोई बच्चा गड्ढे में गिर जाता है तो दिन-रात वही दिखाते हो आप लोग। वो राष्ट्रीय समस्या हो जाती है, वो राष्ट्रीय ख़बर हो जाती है और एर्राबोर में नक्सलियों ने किया नरसंहार याद है आपको। छोटे-छोटे दूधमुंहे बच्चों तक की गला रेतकर हत्या कर दी गई थी। मरने वालों का आकड़ा एक नहीं दर्जनों था। क्या हुआ। क्या वो ख़बर नेशनल नहीं थी। नहीं उसे आप लोगों के हेड ऑफिस में बैठे साहब लोगों ने उसे लोकल ठहरा दिया। चलो मान लिया एर्राबोर के समय गल्ती हो गई। फिर रानीबोदली कैम्प में भी नक्सलियों ने कहर बरपाया था, तब भी दर्जनों लोग मारे गए थे। फिर वही लोकल वाली बात। क्या बिना टी.आर.पी. के छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्यों के आदमियों की जान की कीमत मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों के आदमियों की जान से कम होती है। आप लोगों के लिए तो मौत-मौत में फर्क होता है। आप लोगों के लिए ख़बर-ख़बर में फर्क होता है। आप लोगों के लिए तो लोकल-नेशनल के मायने अलग-अलग होते हैं। छत्तीसगढ़ में अगर कोई अफसर सैक्स स्कैण्डल में फंस जाए, तो पूरा नेशनल मीडिया टूट पड़ेगा छत्तीसगढ़ पर। दिलीप सिंह जुदेव की सीडी क्या बनी, सारे नेशनल चैनल ने उन्हें इतना दिखाया जितना पूरे छत्तीसगढ़ को आज तक नहीं दिखाया होगा। गलत बोल रहा हूं मैं।
मेरी गर्दन और झुकते जा रही थी। वो बोला हमको शहीद होने का डर नहीं। न हम लोग ड्यूटी से भागते हैं। जान हथेली पर लेकर रात को गश्त करते रहे। एक नहीं सात-सात साल। और भी करते रहेंगे हम जैसे लोग। हमको कोई ऐतराज नहीं, लेकिन हमारा ऐतराज ये है कि क्या बस्तर में काम करने का ठेका सिर्फ हम जैसे लोगों के पास ही है। और जो शहर में रह रहे हैं वे क्या भगवान से लिखाकर लाए थे कि वे शहर में ही काम कर सकते हैं। क्यों गलत कह रहा हूं मैं। मैंने खामोश रहना ही ठीक समझा, पर वो भड़क गया। वो बोला मैं भगवान से बात नहीं कर रहा हूं, आपसे बात कर रहा हूं। भगवान से तो मैं बस्तर में रोज बात करता था और यही सब बात करता था। अभी मैं आपसे पूछ रहा हूं। या तो भगवान समझ लो खुद को और खामोश रहो या फिर अमरसिंह की तरह बकवास करो। मैंने कहा शहर में रहने वालों के भी तो ट्रांसफर होते हैं। फिर फट पड़ा वो ट्रांसफर। फिर क्या होता है, रूक जाता है न ट्रांसफर। क्यों, मेडिकली अनफिट का सर्टिफिकेट लग जाता है और ट्रांसफर रूकते ही फिट हो जाते हैं। ऐसा होता है क्या। जो अफसर मेडिकली अनफिट का सर्टिफिकेट देता है उसे तो सेवामुक्त कर दिया जाना चाहिए। लेकिन सरकार ने क्या किया। बस्तर ट्रांसफर पर भेजे गए ऐसे ही मेडिकली अनफिट अफसर को रिटायरमेंट के बाद फिर से सेवा पर रख लिया। क्यों क्या वो इतना काबिल था। सारा प्रदेश जानता है कि रिटायरमेंट के बाद उसे दोबारा सेवा पर क्यों रखा गया। आपको भी पता होगा, है न कि बताऊं। मेडिकली अनफिट लोग शहर में मलाई खाएं। उनके बच्चे अच्छे-अच्छे स्कूलों में पढ़ें। दवा-दारू के लिए बढिया अस्पताल उनको मिले। शानदार इलाकों में बंगले बने। और जो जंगल में हैं वो सड़ता रहे जंगल में। न स्कूल, न अस्पताल, न कॉलेज, न ढंग का घर, न खाने का ठिकाना, न रहने का ठिकाना। और उस पर से शहीद होने की गारंटी। इसीलिए नौकरी दी थी क्या सरकार ने हम जैसे लोगों को।
मैंने बड़ी हिम्मत जुटाकर कहा कि उन लोगों की समाज में क्या इज्जत है, पता है न। वो बोला इज्जत। इज्जत आजकल पैसे वालों की ही होती है। जैसे अमरसिंह। अमरसिंह की इज्जत आप लोगों की नज़र में मोहन चंद शर्मा से ज्यादा है। जभी तो आप लोगों ने मोहन चंद शर्मा की शहादत पर उसके घटिया सवालों को इज्जत दी। उसकी जगह दूसरा कोई नेता होता, तो शायद टीवी पर दिखता ही नहीं। कोई गरीब छुटभैय्या पत्रकार अध्धी-पौव्वा लेकर एकाध सिंगल में उसे निपटा देता। आप लोगों का तो इज्जत नापने का पैमाना भी अलग-अलग होता है। इज्जत भी लोकल और नेशनल होती है। शहादत भी लोकल और नेशनल हो ही गई है। मोहन चंद शर्मा दिल्ली में शहीद हुए तो सारा देश उन्हें जान गया, लेकिन जंगलों में शहीद होने वाले बहुत से उन्हीं के भाई-बंधू ऐसे हैं जिनकी शहादत का पता ही नहीं चलता। माफ करना भैय्या मैं मोहन चंद शर्मा जैसे महान् पुलिस वाले की शहादत को कम नहीं आंक रहा हूं, न ही उनकी ईमानदारी और निष्ठा पर कोई सवाल उठा रहा हूं। मेरे लिए वो आदर्श पुरूष हैं और मैं मरते दम तक उनका सम्मान करता रहूंगा। लेकिन मैं ये भी चाहूंगा कि आप और आपके भाई-बंधू भी उनकी उतनी ही इज्जत करें। उतनी नहीं कर सकते तो कम से कम अमरसिंह से तो ज्यादा करें और अगर अमरसिंह का खिलाया-पिलाया गले तक भरा हो तो भी उससे ज्यादा नहीं तो उससे कम भी न करें। वो बोले जा रहा था और मेरी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट जाएगा। और भी बहुत कुछ कहा उसने हिम्मत जुटा पाया तो ज़रूर बताऊंगा। फिलहाल मेरी हिम्मत जवाब दे रही है।
24 comments:
मेरे पास शब्द नहीं हैं इस आलेख सीरिज की तारीफ़ के लिये… एक-एक शब्द सच्चाई से ओतप्रोत, आग उगलता हुआ… मान गये साहब आपको, मेरा साष्टांग दण्डवत स्वीकार करें… यदि इस लेख को पढ़कर दो-चार पत्रकारों, नेताओं, अफ़सरों को शर्म आ जाये तब भी काफ़ी है… सचमुच आपने कमाल किया है…
अनिल जी,
आपकी साफगोई बहुत अच्छी लगती है..
समाज व देशभक्तों की अवहेलना तो परम्परा रही है.
इसका कोई सीधा ईलाज भी नहीं दीखता..
खुदा खैर करे...
वो बोले जा रहा था और मेरी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट जाएगा। और भी बहुत कुछ कहा उसने हिम्मत जुटा पाया तो ज़रूर बताऊंगा। फिलहाल मेरी हिम्मत जवाब दे रही है।
" sach kha aapne ye post pdh kr hee ptta chul rha hai , kee apke pass uskee koee bhee bata ka jvab nahee hoga, or aapke jgeh koee bhee hotta jvab nahee de pata, kya galat keh rha hai vo....'
regards
नमन है उन देशभक्तों को जो जान की परवाह किए बिना दुर्गम परिस्थितियों में अपने परिवार से दूर अंधेरे में रहते हैं और एक दिन दश-दुनिया सब छोड़कर चले जाते हैं. लानत है उन बीके हुए नेताओं पर जो अपने महल में बैठकर उस शहादत का भी मज़ाक उडाते हैं.
कई दिनों से नोटिस कर रहा हूँ की आप नक्सल समस्या ओर ओर पुलिस विभाग की कुछ समस्यायों को लेकर लगातार सवेदनशीलता बनाए हुए है ...आपके लेखन में एक इमानदारी है कोई दुराव या छिपाव नही...कोई मुखोटा नही......सलाम आपको ओर उन वीरो को जो बेनाम ही शहीद हुए
लेख की लम्बाई को देख कर एक बार आकर वापस चला गया था की घर पहुंचकर फुर्सत से पढेंगे ! अभी आपका सम्पूर्ण आलेख पढ़ने के बाद आपकी साफगोई और दिलेरी के लिए आपको नमन करता हूँ ! इसी तरह बेबाक लिखते रहिये ! अच्छा लगता है जब कोई अपना इस तरह से कलम उठाता है ! धन्यवाद और शुभकामनाएं !
Bahut badiya. isi tarah bebak likhte rahiye.
naman karata hun un shaheedo ko
or baduaa de raha hun sattarudh netaao ko . bahut hi sateek post. badhai.
पढकर दुष्यंत जी की पंक्तीया याद आ गयी कि
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है ।
नाव जर्जर ही सही लहरो से टकराती तो है ।
एक चिंगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये मे तेल से भीगी हुयी बाती तो है ।
Anilji,Jabardast lekh hai. ek ek sabd hila kar rakh deta hai. Sahi bat hai ki is desh men imandari ki chhati par moong dalta hai bhrastachar aur desh ki buri halat ke liye mukhy kaaran bhi yahi hai.
इज्जत भी लोकल और नेशनल होती है। शहादत भी लोकल और नेशनल हो ही गई है।
शानदार लिखा है!
ऎसा लग रहा है की मेरा सिर भी फ़ट जायगा। फ़िलहाल मेरी हिम्मत जवाब दे रही है। सच नंगा और शर्मनाक है।
बहुत शानदार | कुल मिला कर पैसा, सत्ता, पद ही सब कुछ है जिनके पास ये नहीं उन्हें कोई नहीं पूछता है | आजकल टीवी, इन्टरनेट और अधिक होती जनसंख्या ने संघर्ष बड़ा दिया है |
एक एक शब्द तसल्ली से पढा, तब जाकर पाया कि आपने पत्रकारिता को जीया है, भोगा है, भीतर तक समझा है। सच्चा आदमी पीड़ा भोगने के लिए अभिशप्त होता है। बेबाकपन पसंद आया।
अनिल जी आप का लेख पढ कर मुझे बहुत अजीब लगा, आप ने एक सच्चाई लिख दी, हम सब को चाहिये कि इन सब दोगलो को हटाये ओर कुछ नया बदले.
आप को प्राणाम
धन्यवाद
ek-ik shabd hyaan se padhane layaq.
bahut hi marak-lekhan.
aur haan bhaisahab blog ka layout to gazab ka hai.
kahin sanjiv kamaal to nahin.
पढिये: अब पत्रकार निशाने पर , क्लिक कीजिये
http://hamzabaan.blogspot.com/2008/10/blog-post.html
Lazavab, Badhe bhai. Mere pas shabd nahin hai, Bahut bahut dhanyavad, hamari mansikata ko jhakjhorne ke liye.
पिछली कड़ी नहीं पढ़ सका था. आज दोनों पढीं. ईमानदारी की पत्रकारिता ये होती है जो आपने लिखी है. आपकी सोच और आपको नमन है अनिल जी.
बहुत शानदार पोस्ट अनिल जी...लिखने का अंदाज़ दिल को छू गया....मोहन चंद शर्मा जैसे बहादुर अफसर का जाना वाकई दुखद है लेकिन तस्वीर के सिर्फ़ एक रुख पर ही देखे जाना जायज़ नही है, जिस इनकाउन्टर पर इतने सवाल उठ रहे हैं उसे अपनी इज्ज़त का सवाल बना लेना सही नही है..मैं नही जानती सच क्या है लेकिन सोचिये अगर ये इनकाउन्टर ग़लत था तो?
क्या हमारी पुलिस इतनी विश्वनीय है कि हम आँख बंद करके उस पर विशवास कर लें? क्या आपको नही पता कि दबाव में आकर इनकाउन्टर कैसे किए जाते हैं?
ज़्यादा तर इनकाउन्टर बेगुनाहों के होते हैं....इस लिए सवाल उठाना लाज़मी है....उसे इस तरह अपनी अना का मसला बना लेना जायज़ नही है...सच्चाई जब सामने आएगी तो सब कुछ सामने आजायेगा...तब तक सब्र करने की ज़रूरत है...
बड़ी असहज कर देने वाली पोस्ट है।
बहुत सवाल हैं, जवाब कहां हैं - समाज-देश-हमारे पास?
फिरदौस उर्फ़ मौसम जो एक ही आदमी है ओर जिनके ब्लॉग से अक्सर इस देश के लिए नफरत नजर आती है कायदे से उनके ब्लॉग पर बैन लगना चाहिए .
खास तौर से नजर डाले
जिया उर रहमान
उम्र -२४ साल
जामिया मिलिया का तीसरे साल में पढने वाला छात्र
मुझे अपने किए पर कोई पछतावा नही ,अगर पकड़ा नही जाता तो नेहरू-प्लेस पर बोम्ब रखता ,कुछ ही लोगो का अल्लाह का ये फर्ज निभाने का मौका मिलता है ,मै इस्लाम की सेवा कर रहा हूँ .
जब उसे पोच्चा गया क्यों ऐसा कर रहे हो ?
गुजरात में जो हुआ उसके ख़िलाफ़ !
तो दिल्ली में मासूमो का मारकर कैसा बदला ?
जवाब में में गुस्सा "मार दो गोली मुझे "
साकिब निसार -उम्र २३ साल
जामिया मिलिया का graduates ,फिलहाल M.B.A की तैय्यारी सिक्किम की मनिपाल यूनीवर्सिटी से से
कहते है जिहाद के लिए बम रखा
शकील -उम्र २६ साल
जामिया मिलिया के आखिरी साल के इकोनोमिक्स के छात्र
कोई पछतावा नही ,हम अल्लाह के लिए कर रहे है ओर इस देश की इकोनोमी बरबाद कर देगे .
ये सब पढने के लिए इंडिया टुडे ओक्टोबर अंक पेज नंबर ३२-३९ पढिये तो जो लोग बड़े बड़े दावे पेश कर रहे थे इन मासूमो के बचाव में ,उनकी आँखे खुल जानी चाहिए ,अब या तो इंडिया टुडे झूठी है या सारे सबूत मन घड़ंत जैसा की सब कहते है .
जामिया मिलिया का अगर कोई छात्र ख़राब है तो इसमे जामिया को क्यों शर्म आती है ,हर यूनी-वर्सिटी में किस्म किस्म के शोहदे होते है ,इसमे यूनी-वर्सिटी की कोई गलती नही ,उम्मीद है अब वहां के वाइस चांसलर भी खामोश बैठेगे .
ye rakshnanda bhi jara dhyaan de .
देश की हालत भ्रष्टाचार के दूत नेताओं, अधिकारीयों और कोर्पोरेट दलालों ने सच में ख़राब कर राखी है. और लोकशाही का चौथा स्तम्भ बिक चुका है.
यह रक्षन्दा नाम से लिखने वाला ब्लॉगर कोई पुरूष है, जो लड़की बनकर और लड़की की फोटो लगाकर पहले देशद्रोही बातें भड़ास पर लिखता था, अब ख़ुद के ब्लॉग पर लिखता है. घोस्ट बस्टर ब्लॉग पर इसका भंडाफोड़ किया गया था.
काश मुझे इनसे मिलने का सौभाग्य मिलता.. बात किसी एक नेता की नहीं है बल्कि उन सभी की है जिनके लिए कुर्सी ही सबकुछ है.... हर किसी में सच्चाई कहने का मादा नहीं होता.. आपकी इस हिम्मत को मैं सलाम करती हूं. लेकिन न जाने क्यों जितना सच्चाई को जानती हूं खुद से उतनी ही नफरत होने लगती हैं.. क्योंकि सबकुछ जानकर भी हम कुछ क्यों नहीं कर पाते... मैं खुद एक पत्रकार हूं लेकिन टी आर पी की इस दौड़ में अपना वजूद खो चुकी हूं.. इस जोश और समाजसेवा के उद्देश्य को लेकर मैनें इस फील्ड में कदम रखा था वो खो चुका है..पर हां हिम्मत कभी नहीं हारूंगी.... अब तो बिल्कुल भी नहीं.......धन्यवाद
anil sir, aap ki saaf goee ki dad deni paredi.waise to mai kai saal se aapko lagatar parhta raha hu,lekin is series ne dimag ki battiya bujha di.mujhe ye series pehle parhne nahi mili thi.sachchai me karvahat hai,parantu sach -sach hota hai.apkeis sahsi kadam ke liye aapko meri taraf se kotis-kotis badhayee.
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