बहुत से सवाल मेरे दिमाग मे बवाल मचाये हुये हैं।बहुत सोचा इस मामले मे ना लिखूं।फ़िर लगा क्यों ना लिखूं।दूसरो को नंगा करने मे तो बड़ा मज़ा आता है,और जब अपनी बारी आई तो…………।इस उधेडबुन मे दो दिन गुज़र गये और आखिर मुझे लगा ये कड़ुवा सच भी सामने आना चाहिये कि अधिकांश पत्रकार एक मृत संपादक को श्रद्धांजलि देने लायक भी नही समझते?
कुमार साहू छत्तीसगढ के लिये नया नाम नही है।वे आज़ादी के साथ यानी सन 47 से पत्रकारिता से जुड़े थे।सीधे-सादे पत्रकार के साथ-साथ वे आम आदमी का भी प्रतिनिधित्व करते थे।पिछले साल बीमारी से लम्बे संघर्ष के बाद उन्होने इस दुनिया से मुंह मोड़ लिया था।उनकी पहली पुण्यतिथी पर उनके पुत्र अनुपम ने एक कार्यक्रम प्रेस क्लब मे करने की इच्छा जताई।मै उस समय खामोश रहा।मुझे पता था श्रद्धांजलि कार्यक्रम मे लोग आते नही है।फ़िर मैने अनुपम से कुछ लोगो को आप बुला लेना।उसने कहा हां। और कार्यक्रम तय हो गया।
फ़िर हुआ वही जिसका मुझे ड़र था।लोग नदारद थे।कुमार साहू अपने समय के जाने माने पत्रकार रहे हैं।उन्होने कईयों को कलम पकड़ना सिखाया,कईयों को नौकरी दी,कईयों की नौकरी बचाई और कईयों को पत्रकार बनाया।वे पत्रकारिता के स्कूल थे।उनकी भाषा पर जबरदस्त पकड़ थी और अच्छे साहित्यकारो मे भी उनकी गिनती होती थी।एक नही चार पुस्तके उनकी प्रकाशित हो चुकी हैं।कहने का मतलब ये कि वे नये नही थे और छत्तीसगढ के सबसे बड़े अख़बार नव-भारत के संपादक रह चुके थे।
इसके बाद उनकी श्रद्धांजलि सभा मे उंगली पर गिनने लायक पत्रकारो को देखा तो मुझे दूसरो से ज्यादा खुद पर अफ़सोस हुआ।उस समय लगा क्या वाकई हम लोग पत्रकार कहलाने लायक हैं।किसी नेता या बड़े व्यापारी या प्रभावशाली व्यक्ति की शवयात्रा मे ढेरो पत्रकार नज़र आ जाते हैं।उन लोगो की भी जिन्के परिजन उन्हे जानते तक़ नही और यंहा हमारे ही परिवार के बुज़ुर्ग कुमार साहू को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिये उनके पास समय नही।
वरिष्ठ पत्रकारो के नाम पर शंकर पाण्डेय,गिरिश पंकज भर बस मौजूद थे।मै तो अध्यक्ष होने के नाते था ही बाकी नज़र ड़ालो तो सब नये पत्रकार्।उनमे से भी आधे से ज्यादा इलेक्ट्रानिक मीडिया के।उनमे से अधिकांश ने कुमार साहू को देखा तक़ नही था।काम तो खैर मैने भी उनके साथ नही किया था लेकिन उनसे मेरा संबंध अच्छा था।प्रेस क्लब के एक कार्यक्रम मे मुख्यमंत्री से पत्रकारो की पेंशन योजना के बारे मे बात करने के बाद उन्होने फ़ोन कर मुझसे कहा था। हम लोगो को तो इसका लाभ नही मिलेगा लेकिन तुम इसे लागू करवाओ।बहुत से पत्रकारो की हालत बहुत खराब है।उनका भला हो जायेगा।उस समय वे बीमार थे और उनकी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नही थी,मगर उनका दूसरे साथियो के बारे मे खयाल रखना उनकी अच्छाई का सबूत था।
श्रद्धांजलि सभा मे सभा मे अगर अनुपम के परिजन,साहूजी के कुछ पुराने गैर-पत्रकार साथी और नये नवेले पत्रकार नही होते तो शायद उससे शर्मनाक और कुछ नही हो सकता था। और नये पत्रकार भी किसी राजनैतिक पार्टी के कार्यक्रम मे जुटाई गई भीड़ की तरह मैने डांट-डपट कर हाल मे इकट्ठा किये थे।सभा मे कौन क्या कह रहा था,मुझे कुछ समझ मे नही आ रहा था।मैने इशारे-इशारे मे लोगो की कम उपस्थिति पर नाराज़गी जाहिर ज़रूर की लेकिन मुझसे ज्यादा हिम्मत वाला निकला एहफ़ाज़ रशीद्।वैसे,जैसे ही वो बोलने के लिये आगे आया मुझे आशंका हुई थी कि वो ज़रूर उनके साथ काम करने वालो को घसीटेगा,मगर इस बार उसने बिना किसी का नाम लिये वो सब कह दिया जो कहना ज़रूरी था।कार्यक्रम के समापन पर आभार व्यक्त करते समय कुमार साहू के पुत्र अनुपम का गला एक नही दो-तीन बार भर आया और हम सब का मन भी।तब से सोच रहा था कि अपनी बिरादरी की इस बेरूखी को सबके साम्ने रखूं या नही और आखिर दिल नही माना तो मन को बेचैन कर रहे गुबार को आपके सामने रख रहा हूं।सही किया गलत मै समझ नही पा रहा हूं,आप को क्या लगा बताईयेगा ज़रूर्।
17 comments:
शायद गलती हो गयी है .. कुमार साहू छत्तीसगढ के लिये नया नाम है .. की जगह नया नाम नहीं है .. होना चाहिए .. आज की दुनिया बहुत स्वार्थी हो गयी है .. आदमी जीवित हो तो भी शक्ति , पैसे और पद की पूजा होती है .. ये खोते ही इज्जत समाप्त .. फिर मरने के बाद कौन किसे पूछता है ?
जो लोग जुड़े अपने आप उनका सच्चा जुड़ाव होगा। बेमन से भीड़ जुटाने से भी क्या फ़ायदा। उनके सुझाये आमजन/पत्रकारों के हित के काम करके अपना अपराधबोध दूर किया जाये। :)
पंडित जी। मैं ने अपने यहाँ बहुत स्मृति समारोह देखे हैं। साल दर साल उन में उपस्थिति कम होती जाती है। वैसे भी हम सभी पुण्यतिथियाँ मनाने लगें तो शायद कोई दिन ही न बचेगा। इन कारणों से जब भी किसी की पुण्यतिथि मनाने की बात आती है मैं विरोध करता हूँ।
आप साहू जी की पुण्य तिथि मनाने के स्थान पर उन के परिजनों को सलाह दें कि प्रतिवर्ष वे उन की स्मृति में किसी एक नए पत्रकार को जिस ने पिछले वर्ष में उल्लेखनीय काम किया है सम्मानित करना आरंभ कर दें। सम्मान समारोह करें उन की पुण्यतिथि को या उसी माह में किसी सुविधाजनक तिथि को। इस से दिवंगत का स्मरण भी होगा और एक नवोदित की पहचान भी बनेगी और लोग भी जुटेंगे।
बात केवल पत्रकारों की ही नहीं है, यह बदलते मूल्यों का द्योतक है. आज समाज के हर अंग की कमोवेश यही हालत है जिसका नारा है 'रात गयी बात गयी'. आगे आगे देखिएगा पश्चिम की तर्ज़ पर, हमारे समाज में वृधाश्र्मों की भी वृद्धि ही होनी है...हम भी कम एहसान फरामोश कौम नहीं रह गए हैं.
वे पत्रकारों की नस्ल . में बताये गए अंतिम श्रेणी के पत्रकार होंगे.
bahut dukhad hai logon ki samvedansheelta din par din mar rahi hai apne achha kya aisi ghatnaom par jaroor likha jana chahiye
स्वार्थ की बलिहारी है.
रामराम.
yah dunia aur yah duniawale .....yahi to duniadari hae
आपने बिल्कुल सही किया अनिल जी !!
पत्रकारो की हालत और मानसीकता अब वाकई चिंता करने के लायक हो रही है । ग्लैमर से भरे इन छोकरो को जो खुद को पत्रकार कहते है देखकर बडी पीडा होती है और इनके चलते ही सच्चे पत्रकारो पर भी लोग भरोसा नही कर पा रहे है ।
मैने इन नेता के दायें बायें बनने वाले पत्रकारो को इतने नजदीक से देखा है कि गोया अब भास्कर पश्चीम से उगता दिखता है और हरिभूमी मरुभूमी सदॄश जान पडती है !!
अंत मे साहू जी को श्रद्धांजली !अच्छे लोगो को पहले से गुमनामी की आदत डाल लेनी चाहीये क्योकि अब उनके लिये रोने वाले कोई नही रहे ॥
पुसदकर जी बड़ी शर्मनाक स्थिति है. आजकल केवल पैसा बोलता है. एक जमाना था जब पढ़े लिखे ईमानदार लोगों की इज्जत होती थी. आज महिमा केवल और केवल पैसे की ही है.
ये तो वाकई में बड़ी शर्मनाक बात थी...लेकिन आप ये क्यों लिखते हैं कि खुद पर ज्यादा शर्म आयी....कम-से-कम आप वहाँ तो थे, आपको अहसास तो था....
वैसे सच पूछिये अनिल जी तो कमोबेश सब जगह यही हालात हैं
भैया सबसे पहले तो माफी चाहूंगा कि कार्यक्रम में मैं खुद मौजूद नहीं था, कारण आपको मालूम ही है। तीन दिन पहले ही अखबार बदल कर नई नौकरी ज्वाईन किया सो लोचा होना ही है।
बाकी कुमार साहू जी से पहला परिचय तब हुआ था जब मेरे पिताजी के गुजरने के बाद वे घर आए थे अपनी श्रद्धांजलि देने, शाम का समय था, मै नवभारत से ही अपनी नौकरी बजा कर घर पहुंचा था। बड़े भाई ने बुलाया और उनसे परिचय करवाया था। तब उनसे करीब आधे घंटे तक बात हुई थी। उसके बाद 2-3 बार उनके घर भी जाना हुआ था गीता नगर में।
और कुछ नहीं bas अपने आप से ही मुआफी मांगता हूं कि उन्हें श्रद्धांजलि देने भी नहीं पहुंच पाया।
aisa aksar hota hai.. afsos to hota hai, magar isme kuchh bhi naya nahi hai.. ham bhi afsos karke fir se apne kam me jut jate hain..
ये पूरे समाज के बदलते मूल्यों की एक झलक है अनिल जी....पत्रकार भी इसी दुनिया के है .अलग से नहीं आये है ......अब सब कुछ नाप तौल के होता है ..आदमी आत्मकेंद्रित इतना हो रहा है .की पूछिए मत
आदरणीय अनिल जी सादर वंदन
आपका ब्लॉग देख ये लग रहा है की ब्लॉग की दुनिया में छतीसगढ़ का भी परचम लहराने लगा है ,
ओर इस ब्लॉग का विषय भी बहुत गंभीर है इसलिए मेरा टिपण्णी करना भी उचित नहीं होगा
अनिल जी,
सहानुभूति है आपसे कि इस तजी के दौर में कहां बीती बातों का पिटारा खोल बैठे। आज को सर्वशक्तिमान ईश्वर को भी बिना मतलब के याद नही करता तो माँ, बाप या कुमार साहू जी....?
क्षोभ होता है, नैतिक पतन पर।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
समय का खेल?
साहू जी को श्रद्धांजलि!
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