टीवी वाला भईया सुबह-सुबह स्पेशल रिपोर्ट मे बता रहा था कि इंटरनेट और मोबाईल बीमारी है?ये आदत जानलेवा बीमारी मे बदल सकती है।ईमेल चेक करना घातक बीमारी के लक्षण है?बच्चों का मोबाईल से चिपके रहना गंभीर खतरे की निशानी है।आपको और आपके परिवार को सुखी रहना है तो इंटरनेट और मोबाईल से दूर रहिये!मज़े की बात तो ये है कि जैसे ही इस खतरे से सचेत करने वाले भैया ने अपनी दुकान बंद की तो दूसरे भैया ने वंही पर मोबाईल के नये माडलो की दुकान सज़ा ली।वो भैया तो बाक़ायदा लोगो को दुकान मे बिठा कर मोबाईल के माडलो के फ़ायदे बता रहा था।ये वाला लेने से ये फ़ायदा और ये वाला लेने से ये।भैया अगर आपका एक सेल्समैन इंटरनेट और मोबाईल गंभीर और जानलेवा खतरा है बता रहा है तो दूसरा उसे खरीदने की सलाह क्यों दे रहा है?अगर आप को लोगो की, समाज की और देश की इतनी ही चिंता है तो मोबाईल के विज्ञापन दिखाना बंद कर दो। अगर नही कर सकते तो कम से कम मोबाईल के नये प्रोडक्टस पर कार्यक्रम तो दिखाना बंद कर दो।और अगर ये भी नही कर सकते तो कम से कम लोगो को मोबाईल के खतरे तो मत बताओ।आखिर कहना क्या चाहते हो आप लोग्।खुद तो कन्फ़्यूअज़्ड रहते हो ,रहो,मगर लोगो को तो मत करो।एक तरफ़ जिसे जानलेवा बीमारी बता रहे हो दूसरे ही पल उसे आज की सबसे बडी ज़रूरत बता कर बेच भी रहे हो।
और अगर इंटरनेट और मोबाईल को खतरा बता ही रहे हो तो एकाध शब्द टीवी के बारे मे भी बोल देते।क्या टिवी देख कर लफ़्डे नही हो रहे हैं।क्या लोगो को टीवी देखने की लत नही लगी है?क्या लोग टीवी से नही चिपक रहे हैं।क्या टीवी ने टीबी की शक्ल नही ले ली है?क्या बच्चे कार्टून चैनलो से चिपके नही रह्ते?क्या रियेल्टी शो के चक्कर मे जाने नही गई है?इंदौर का उदाहरण याद इलाने के लिये दे देता हूं।और फ़िर क्या आदत और लत सिर्फ़ मोबाईल और इंटरनेट की ही होती है?क्या सिर्फ़ वही जानलेवा बीमारी मे बदल सकती है?अगर इंटरनेट और मोबाईल बीमारी है तो टीवी क्यों नही?मै ज्यादा कुछ कहना नही चाह्ता इस विषय पर,नही तो फ़िर कोई कह देगा कि आप टीवी वालो से चिढते हो,लेकिन इतना तो ज़रूर कहूंगा कि कंही टीवी वालो को अपने दर्शक कम होने और उनके इंटरनेट की ओर भागने का डर अभी से सताने लगा है।विषय गंभीर है और कहने को बहुत कुछ मगर मै चाहता हूं कि आप भी कुछ कहे टीवी पर न सही कम से कम इंटरनेट पर तो ज़रुर कहें।आपकी राय का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
20 comments:
हर छोटा बड़ा टीवी वाला बीमार बनने को अपना ब्लॉग बनाये जा रहा है! :)
सच तो यह है कि सभी आधुनिक उपकरण हमें पुस्तकों और अन्य गतिविधियों से दूर ले जा रहे हैं। पर क्या इसे बदला जा सकता है। कभी पढाकू पौ लोग यह जुमला कसते थे- उसे पढने की बीमारी है:)
बढ़िया पोस्ट.
तो क्यों ये इन्टरनेट के जरिय आई पी टी वी के रूप में घरों में पहुँच रहे है |
आप ने खूब पकड़ा है टीवी वालों को।
अरे यह टीवी वाला चिढता है ब्लांगरो से इसी लिये ऎसी बाते करता है, एक ब्लांगर बनाने का कितना लाभ है, टीवी के पेसे बचे, बिजली टी वी पर ज्यादा खर्च होती है, मोबाईल का खर्च बचा, बीबी से जान बची, आडोसी पडोसी खुश ब्लांगर के पास समय नही किसी अन्य से बात करने का, कोई शोर नही ब्लांगर के पास... इस लिये यह डरा रहा है
बहुत अच्छा लिखा आप ने
धन्यवाद
LAJAWAAB LIKHA HAI BHAI .....
भाटिया जी सही कह रहे हैं आप डते रहिये टी वी वालों के खिलाफ हमारी राय आपसे भिन्न नहीं है आभार्
Humara to internet se nata tootane se raha koee kuch bhee kahe tv se chutkara pane ke liye isase achcha jariya aur kya ho sakta hai kya. aur ab to iski adat pad gaee hai.
अच्छा ?
बीमारी ही सहीं टीवी के घटिया कार्यक्रमों से तो बेहतर है हमारा इंटरनेट.
अरे अनिल भाई...मैंने तो सुना था....कि टीवी बीमारी नहीं ...महामारी की तरह है....हम तो ब्लोग्गिंग ही करेंगे...हां ...कोइ पोलियो ड्रोप्स की दवाई हो तो कहिये
कल आधे घंटे दूरदरर्शन पर और आधे घंटे एनडीटीवी इंडिया पर इस मसले पर जमकर बहस हुई। लेकिन अच्छा लगा कि दूरदर्शन पर ज्यादातर लोगों ने हम जैसे ब्लॉगरों का पक्ष लिया और इंटरनेट को आजाद दुनिया का माध्यम बताया जिनमें मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश भी शामिल थे।
माना कि चीन में नेट पर बैठने पर बच्चों पर रोकटोक है साथ ही यूएस में भी होने लगी है। पर मुझे तो लगता है कि नेट फिर भी काफी बेहतर है।
टीवी के मरीजो को ऐसी आजादी कहाँ जो ब्लोगर्स को है...!! :)
सफेद विष काले विष से बेहतर होता है
भाई हम तो राज भाटियाजी की बात से सहमत हैं.:)
रामराम.
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ और खुद को कोस रहा हूँ. कोसना वाजिब भी है, ऐसे ब्लॉग पर आना और इतनी देर से! छिः !! कमाल लिखा भाई, लेकिन मनोरंजन की दुनिया तो विज्ञापन से ही चलती है, उनकी मजबूरी है.
परन्तु सरकार की मजबूरी देखिये, आबकारी विभाग बनाती है शराब बेचने के लिए, मध-निषेध विभाग बनाती है,शराब की बुराइयां बताई जाती हैं और शराब की बिक्री को रोकने की नाकाम मुहिम चलाई जाती है. आपने लिखा खूब और भाषा का इस्तेमाल भी बड़ी सफाई से किया है.
बच्चों के साथ बैठकर "सच का सामना" जैसे अच्छे संस्कार सिखाने वाले कार्यक्रमों को देखने के लिए टी. व्ही. से तो चिपकना ही पड़ेगा ना!
अनिल जी .. मेरा प्रणाम | मुझे लगता है टीवी वालों को खबर लग गई है की इन्टरनेट टीवी की वाट लगा सकता है | इसीलिए अभी से ही भूमिका बांध रहे हैं |
कुछ भी हो टीवी से तो इन्टरनेट बहुत अच्छा है, यहाँ पे आप अच्छी और बुरी दोनों चीजें देख-सुन और पढ़ सकते हैं | पट टीवी पर तो बस आप्शन एल ही है इनकी गन्दगी को ना चाहकर भी झेलते रहें ....
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