Tuesday, October 13, 2009

माता-पिता बच्चों को बोलना सिखाते है और बच्चे…………………………

एक माईक्रोपोस्ट्।बच्चों को बोलना माता-पिता ने सिखाते है और ये काम वे पूरी ज़िम्मेदारी से करते आये है,कर रहे हैं और करते रहेंगे।कितना खुश होते हैं वे जब बच्चा पहला शब्द बोलता है।मगर जब वही बच्चा बोलना सीख जाता है तो बड़ा होकर माता-पिता को चुप रहना सिखाने लगता है।हर कोई ऐसा नही करता मगर अफ़सोस बहुत से बच्चे ऐसा करते दिख जाते हैं।ज़माना बदल गया है,आपको पता नही है,आपके समय की बात और थी,समय बदल गया है…………………और ढेर सारे ऐसे वाक्य हैं जिनकी आड़ मे बच्चे माता-पिता को चुप कराते नज़र आ जाते हैं।ये सुनकर उनको विश्वास ही नही होता जिन्होने उस बच्चे को बोलना सिखाया।आंखों मे आंसूओं का लबालब भरा समंदर सब्र के बांध को तोड़ता हुआ उन्हे ये मानने पर मज़बूर कर देता है कि वाकई समय बदल गया है।

28 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

bilkul satya baat kahi aapne. aaj ke sach par prkash dalati sandesh deti bahut sundar baat..dhanywaad.

Unknown said...

आपने हमें बोलना सिखाया था तो हमने बोलना सीख लिया था।

अब हम आपको चुप रहना सिखा रहे हैं तो आप भी चुप रहना सीख लीजिए।

(नहीं सीखेंगे तो चुप करा दिए जायेंगे।)

Mishra Pankaj said...

सोचनीय बात तो है ही पर क्या करेगे समाज बदल गया .
हां एक बात है जिससे करनी , वैसी भरनी

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

hmmmmmmm.......... waaqai mein samay badal gaya hai.......

JAI HIND.......

संगीता पुरी said...

माइक्रो पोस्‍ट में मैक्रो संदेश !!

Mithilesh dubey said...

सच बहुत ही दुःख की बात है।

Unknown said...

अत्यन्त शर्मनाक और निर्लज्जतापूर्ण है यह स्थिति

लेकिन अन्तर में कहीं विश्वास भी है कि वो समय नहीं रहा तो ये भी नहीं रहेगा,,,,,,,,,,,,, नई पीढ़ी समझेगी....और सुधरेगी......ऐसी कामना प्रभु से करता हूँ.........

आलेख के लिए आपका अभिनन्दन !

Anonymous said...

पता नहीं क्यों मुझे यह कविता याद आ गई

आज गाँव से तो क्या,
देश से इतनी दूर आ बैठा हूँ,
तो याद आती है -
कि कैसे बचपन में घर से
केवल बाहर निकलने पर
माँ का जी घबरा जाता था।

जब मेरी गाड़ी कि रफ्तार तेज होती है,
तो याद आती है -
कि कैसे सायकल को तेज चलाता देख
पापा डांटने लगते थे।

जब भी किसी मीटिंग से निकलता हूँ,
और लोग तारीफ करते हैं मेरे बातों कि,
तो याद आती है -
कि कैसे मेरे मुह से तुतलाती बातें सुन कर
मेरे माता-पिता खुश हो जाते थे।

जब कुछ अच्छा खाने को नहीं मिलता
और पीज़ा-बर्गर खा कर दिन गुजरता हूँ,
तो याद आती है -
कि कैसे माँ के हाथ की बनाईं
बैगन की सब्जी नहीं खाता था।

जब लिखता हूँ कम्पनी के क्लाइंट को
ई - मेल अंग्रेजी मैं,
तो याद आती है -
कि कैसे सिखाते थे पापा
अक्षरो को लिखना
अपने हाथों से मेरा हाथ पकड़ कर।

जब कभी किसी जूनियर को धमकाता हूँ
उसकी गलती पर,
तो याद आती है -
कि कैसे डर लगता था
दादा जी झिड़की से।

जब प्रोजेक्ट में आये
किसी नए लड़के को सिखाता हूँ
कोई चीज बार-बार,
तो याद आती है -
कि कैसे चिढ़ता था दुहराते हुए कोई बात
अपने छोटे भाई को कुछ सिखाते हुए।

पता नही क्यों?

पर हर आने वाले पल में
बीते हुए पलों कि

याद आती हैं।

URL: http://abhidha.blogspot.com/2007/11/blog-post_1815.html
--

Khushdeep Sehgal said...

अनिल भाई,

हम उन किताबों को काबिले-ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर बेटे बाप को ख़ब्ती समझते हैं...

वैसे इसी मुद्दे पर पिछले महीने मैंने चार पोस्ट की पूरी सीरीज लिखी थी...सांझ का अंधेरा, आपको पता क्या है, हमें तो पता है, बस अब अपने राम को पता रहे...अगर आपसे छूट गई हो तो पढ़िएगा ज़रूर...

जय हिंद...

रवि कुमार, रावतभाटा said...

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...
वाकई बहुत दूर तलक जा रही है बात..

बाबू समझो इशारे...

कुश said...

एक शब्द याद आ रहा है... परवरिश

ghughutibasuti said...

माँ भी हूँ और बेटी भी। जानती हूँ कि दुर्भावना के बिना भी यह गल्ती कर भी देती हूँ और सह भी लेती हूँ। यही जैनरेशन गैप भी कहा जा सकता है, बदतमीजी भी, या फिर सीखा जा सकता है दूर दूर रहो या फिर कुछ भी स्थिति अनुसार।
जब हम दिल दुखाते हैं तो कह देते हैं हैं कि मैं किसी दुर्भावना से थोड़े ही कह रहा था, जब कोई और दिल दुखाता है तो उसकी छोटी सी गलती भी क्षमा नहीं कर पाते। सच तो यह है कि सबको अधिक सहनशील होना परेगा और अधिक क्षमाशील भी, अन्यथा अलग ही रहना होगा।
बहुत ही बढ़िया व विचारणीय पोस्ट!
घुघूती बासूती

M VERMA said...

वक्त अपना दामन बचाकर चल रहा है
आदमी वक्त से भी आगे निकल रहा है

जिनको एक एक हर्फ़ बोलना सिखाया मैने
वो कहते है मुझे बोलने का शऊर नही है

दिगम्बर नासवा said...

SACH MEIN SAMAY BADAL GAYA HAI .......

राज भाटिय़ा said...

जमाना नही बदला यह हमारे कर्मो की सजा हि हमे मिलती है, जब हम अपने बच्चो के समाने अपने मां बाप, अपने भाई बहिन को कुछ नही समझते तो बच्चे हम से यही तो सीखेगे, जब हमारा बुढा बाप हम से पानी मांगता है तो हम क्या कहते है, हमारा बच्चा वो ही तो सीखता है.... आओ हम सब अपने मां बाप की सेवा करे ताकि कल हमारा बुढापा भी अच्छा गुजरे
अनिल जी आप के यहां आ कर रोज कुछ ना कुछ नया ही ले कर जाता हुं, बहुत अच्छा लगता है.
धन्यवाद

दिनेशराय द्विवेदी said...

हम तो बोल भी नहीं सकते उन के सामने।

Gyan Dutt Pandey said...

मैं अपने माता पिता को चुप रहना तो नहीं सिखाता; पर उनकी कई बातों पर चुप रह कर संवादहीनता यदाकदा बना देता हुं। वह भी शायद गलत है!

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन प्रस्तुति...
मुझे मेरा ही इक शेर याद आ गया कि..

'पकड़ कर प्यार से ऊंगली जिसे चलना सिखाते हैं,
ज़रा सा चलना आ जाये तो ऊंगली छोड़ देता है''

लेकिन इस सबके बावजूद..
बच्चे पैदा भी करने पड़ेंगें और पालने भी....

उम्मतें said...

अनिल भाई ,
आपसे असहमत होकर टिप्पणी दर्ज कर रहा हूँ !
माता/पिता जो भी 'बोलना' अपने बच्चों को सिखाते हैं उसमें 'आप चुप रहिये' भी शामिल होता है जोकि वे अपने माता/पिता यानि की बच्चे के दादा / दादी से कहते हैं ! इसमें वह सारे वाक्य जोड़ सकते हैं जो आपने सुझाये हैं !
मेरे ख्याल से यह 'प्रक्रिया' यानि की 'बोना और काटना' सदियों से ऐसे ही चलती आ रही है !
यह द्वैध ,सभी पीढियों का मामला है इसलिए केवल नवागत पीढी पर दोष मढ़ना सही नहीं लगता !
मसलन मैं अपने बच्चों को जो आदर्श सिखा रहा हूँ क्या अपने माता पिता के लिए मैं स्वयं उतना आदर्श रहा होऊंगा ? ......और सच तो यह है की बच्चा मुझे , केवल सुनता ही नहीं बल्कि देखता भी है !
उम्मीद करता हूँ की आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे ! मेरे लिए यह मसला वास्तव में "होना चाहिए" और वास्तव में "होता है" की तरह का है !
जहाँ पर मैं वास्तव में "होता है" के साथ खडा हूँ !
सस्नेह !
अली !

राजीव तनेजा said...

समय बदल रहा है...हम बदल रहे हैँ..आने वाला समय हमें ही बदल देगा

शरद कोकास said...

अनिल भाई देखते जाइये । आनेवाली पीढ़ी तो अपने माँ-बाप को बोलना सिखायेगी ..। ऐसा इसलिये भी है कि बच्चे पर समाज का प्रभाव भी होता है ।और समाज बदल रहा है । इसीलिये एक ही घर मे दो भाई अलग अलग स्वभाव के होते है।
लेकिन सबसे ज़्यादा खुशी आज मुझे पाबला जी की कविता को देखकर हो रही है ,वे अक्सर कह्ते है मुझे कविता से क्या लेना-देना लेकिन आज आपकी पोस्ट से वे इतना द्रवित हो गये है कि कविता फूट पड़ी.. मुझे भी इस बात की खुशी है कि मेरे कविता के ब्लॉग का एक पाठक तो बढ़ा और आपको भी इस बात की बधाई ।

Anonymous said...

@ शरद कोकास जी,

एक विनम्र जानकारी
वह कविता मेरी नहीं है, जहाँ से ली गई है वहाँ का यूआरएल दिया गया है अंत में

बी एस पाबला

प्रवीण said...

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अनिल जी,
वाकई समय बदल गया है...बड़ी कड़वी हकीकत को शब्द दिये हैं आपने, साधुवाद।

@ पाबला जी,
आपकी कविता तो एकदम दिल से...है।
मुझे बड़ा अभिमान है अपने आप पर हर स्थिति में भावहीन रहने का...पर पता नहीं क्यों इसे पढ़ कर आंखें नम हो गई...

Sudhir (सुधीर) said...

काफी संवेदनशील मुद्दा उठाया हैं अनिल जी आपने. जब स्वयं अपने बच्चों को बड़ा कर रहें हैं तब इस दुविधा के दोनों पहलुओं को समझ सकते हैं....और दोनों पक्षों की समझ शायद वेदना को और गहरा कर देती है.... एक तरफ तो जीवनोपर्जन के कारण अपने माता-पिता की दूरी और न जाने यौवन के उन्माद में कही कितनी सारी जानी अनजानी बातें जिनका मूक आघात देखने के लिए या उनके कष्टों के सहलाने के लिए हम उनके पास ही नहीं ही पाते आज वक्त की परछाई में देखते हैं तो लगता है कि काश एक पल ठहर कर कितना कुछ बदल सकते....

Science Bloggers Association said...

अनिल जी समय के बदलाव की यह धार बहुत तेज है। और हम सब इसके आगे बेबस।
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डॉ महेश सिन्हा said...

शायद इसे ही पीढी का अंतर कहा जाता है .आधुनिकता की दौड़ में मर्यादा कहीं पीछे छूटी जा रही है

अजय कुमार said...

sanskaron ko bojh mante hain log

Smart Indian said...

सही कहा, वाकई समय बदल गया है।