पिछ्ले कुछ समय से देखने मे आ रहा था कि नक्सलियों के प्रायोजित कार्यक्रम के तहत दिल्ली और अन्य महानगरों से तथाकथित समाजसेवी,मानवाधिकारवादी और पत्रकार यंहा आकर मीडिया को गैरज़िम्मेदार और बिकाऊ ठहराने पर तुले हुये हैं।वे यंहा आकर मीडिया को भी दो फ़ाड़ करने की कोशिश मे भी लगे हुये नज़र आ रहे हैं।नक्सलियों के प्रमुख हथियार प्रचार युद्ध मे भोंपू की तरह बज़ने वाले ये लोग यंहा आने-जाने की टिकट से लेकर रूकने_ठहरने की व्यवस्था तक़ उन्ही लोगों से करवाकर आते हैं तो बताईये बिकाऊ वे लोग हुये या जो लोग जान-माल और नौकरी का खतरा उठा कर बस्तर के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों मे पत्रकारिता कर रहे हैं,वे लोग बिकाऊ हैं।
बर्दाश्त की भी हद होती है।जो आता है हवाई जहाज से राजधानी मे उतरकर सीधे बस्तर चला जाता है और कमाल देखिये एक दिन मे ही उसे बस्तर नर्क जैसा नज़र आता है और इसके लिये वे ज़िम्मेदारी भी तय कर देते हैं,सरकार की।सरकार से हमको लेना देना नही है लेकिन इन लोगों के मुंह से एक लफ़्ज़ भी नक्सलियों के खिलाफ़ नही निकलता।लाखों सवाल करने पर भी उनका जवाब होता है अगर सरकार ठीक काम करे तो सब ठीक हो जायेगा।बस्तर को निर्दोष आदिवासिओं और पुलिस वालों के खून से लाल कर देने वाले नक्सलियों के मारे जाने पर तो इन्हे मानवाधिकार नज़र आता है मगर वो मानवो का अधिकार सिर्फ़ उनके मानवो के लिये ही होता है।बस्तर के निर्दोष आदिवासियों और पुलिस वालों के लिये शायद वो अधिकार नही है।
खैर ये उनका अपना विचार हो सकता है,उनकी नीति हो सकती है मगर इसका मतलब ये तो नही है जो उनके साथ है वे सही है और जो उनके साथ नही है वे सब गैरज़िम्मेदार और बिकाऊ हैं।आपको अपने धर्म का पालन करने का तो अधिकार है लेकिन इसका मतलब ये तो नही की आप दूसरे के धर्म को गालियां बकें।नक्सलियों और उनके समर्थक संस्थाओं,कथित समाजसेवी और मानवाधिकार संगठनो के साथ यंहा आकर उनके हिसाब से दौरा कर और उनके नज़रिये से बस्तर की हालत देख कर उनके हिसाब से उसका प्रचार करने वाले भाड़े के भोंपू जब यंहा चिल्लाते है कि सब बिकाऊ हैं तो उनकी बुद्धी पर तरस आता है।जो यंहा न पैदा हुआ,न पला बढा,न यंहा रहा वो बताता है कि सच क्या है?वो बताता है जिसे मोटी रकम न मिले तो कभी बस्तर की सूरत तक़ न देखे?वो बताता है जो महज़ कुछ घण्टे ही पूरा बस्तर घूम लेता है?वो बताता है जो लौट कर फ़िर कभी नही आने वाला होता है बिना फ़ीस लिये?वो बताता है जिसे छत्तीसगढ या बस्तर से ज्यादा अपनी फ़ीस और अपने रिश्तेदारों के विदेशी मदद से चलने वाले एनजीओ को यंहा काम करने के बड़े-बड़े कांट्रेक्ट मिलने की चिंता होती है।
पूरे छत्तीसगढ के बारे मे दुष्प्रचार का एक सुनियोजित षड़यंत्र रचा जा रहा है और तरक्की की असीमित संभावनाओं से भरे बस्तर और छत्तीसगढ को अशांत क्षेत्र घोषित कर यंहा आ रहे उद्योगों के राह मे अड़ंगे डाले जा रहें हैं।विकास के नाम पर खूनी संघर्ष कर रहे लोग यदी विकास के इतने ही हिमायती हैं तो वे स्कूल,अस्पताल,पंचायत भवन और सड़को को क्यों नुकसान पंहुचाते हैं?क्यों वे विकास के रास्ते खोलने वाली सड़को को बनने से रोकते हैं?क्यों उन्हे अब दिल्ली के कथित मीडिया की ज़रूरत पड़ रही है?कल तक़ तो यहीं का मीडिया उन्हे बहुत पसंद था?उनके लोग भी तो हैं यंहा के मीडिया मे?वे भी तो उनके पक्ष मे खुलकर प्रचार अभियान चलाते हैं?उन्हे तो यंहा के लोग कुछ नही कहते। हम जानते हैं कि सबको अपनी विचारधारा तय करने का हक़ है।पसंद अपनी हो सकती है लेकिन इसका मतलब ये तो नही जो नापसंद करे उसे बिकाऊ और गैरज़िम्मेदार ठहराया जाये।
बहुत दिनो से ब्लाग जगत मे भी इन लोगों ने इस तरह का दुष्प्रचार युद्ध छेड़ रखा है।एक साथी ने तो यंहा तक़ लिख मारा कि यंहा के पत्रकारों को खबर नही लिखने के पैसे मिलते हैं।ये वही सज्जन है जो कभी मोटी रकम लेकर यंहा के एक अख़बार के लिये लिखा करते थे और जब वे बेनक़ाब हुये तो उन्हे कोई यंहा पूछ्ता तक़ नही है।झूठ तो ऐसा-ऐसा लिख रहे हैं कि उन्हे माफ़ करने को कतई दिल नही करता।अरे अगर बिके हुये हो तो उनका गाना गाओ,समझ मे आता है लेकिन यंहा के किसान भूख से मर रहे जैसा न बर्दाश्त होने वाला झूठा और बेसूरा राग तो मत छेड़ो।
अब जबकी पानी सर से गुज़रने लगा तो सारे साथियों ने ऐसे लोगों का विरोध करने और उन्हे सबक सिखाने की मांग की।काफ़ी विचार विमर्श के बाद मैने कल रविवार को प्रेस क्लब मे बैठक बुलाई।इस वजह से हम ब्लागरों की मीट भी मुझे कैंसिल करनी पड़ी।बैठक मे शुरुआती उपस्थिति कुछ कम नज़र आई लेकिन लोग आते चले गये और सबने एक स्वर में ऐसे लोगों को बेनक़ाब करने के साथ ही कड़ा सबक सिखाने की बात कही।सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि ऐसे लोगों को और उनसे जुड़े संगठनो और संस्थाओं को प्रेस क्लब अपनी बात रखने के लिये अब अपना मंच नही देगा।ऐसे लोगों के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई की जायेगी और ऐसे लोगों के खिलाफ़ जमकर विरोध प्रदर्श्न किया जायेगा,उस स्तर तक़ कि वो किसी को भी गैरज़िम्मेदार कहने से पहले सौ बार सोचें।
26 comments:
क्या फर्क पड़ता की नीति छोड़ना ही श्रेयकर है. मूँह तोड़ जवाब दिया जाना चाहिए.
जो भी मूँह खोले उनके मूँह में सवाल दबा दो, "वे स्कूल,अस्पताल,पंचायत भवन और सड़को को क्यों नुकसान पंहुचाते हैं?"
मैं भी @#$%&* देना चाहता हूँ, ऐसे बुद्धीजीवीयों को.
संजय भाई बिल्कुल यही सोचा है हम लोगों ने।आपके समर्थन ने हम लोगों का हौसला और बढा दिया है।समय आ गया है ऐसे लोगों को जो विदेशी मदद से देश की तरक्की मे रोड़े अटका रहें है,उन्हे बेनक़ाब किया जाना चाहिये।आभार आपका।
आपके लेख और संजय भाई की भावना से सहमत… लगे रहिये और बेनकाब कर डालिये उन्हें जो "बिस्लरी" की बोतलों का पानी पी-पीकर नक्सलवाद के बहाने अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं…
अनिल जी, ये कुकुरमुत्ते की तरह पनपे ही इसी लिये चूंकि माकूल जवाब इन्हे मिलता ही नहीं है। आप जैसे कलम जीवी सही मायनों में पत्रकारिता में नव-जीवन भर रहे हैं। दिल्ली से बस्तर देखने वाले और दुष्प्रचार करने वालों नें सच को विकृत कर दिया है और हम आपकी ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं।
ये वही लोग है जो यहां--------बरसात होने पर हिंदुस्तान मे छतरियाँ ओढ कर घुमते हैं। हम तन मन और धन से आपके साथ हैं। यलगार हो।
इस बिके हुए मिडिया को मैने करीब से देखा है और यह कह सकता हूं कि आज मिडिया सरकार और पूजिंपतियों की चारणी कर रही है तथा उनका ही मुख्य पत्र और भोंपू बन कर समाचार प्रकाशित हो रहे है। सवाल यह और छुपा हुआ नहीं है, पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इसका जबाब क्या है। श्रमजीवी कहलाने वालों को तो जानता हूं एक कप चाय और दो समोसे उनकी कीमत है। सुबह की शुरूआत थाने की चाय-नास्ते से होती है और दोपहर समाहरणालय में किसी बाबू की दाबत उड़ा रहे होते हैं और रात नेताजी की मस्त पार्टी का मजा भी उनका अपना ही होता है और अन्तत: उनका भोंपू बन कर अखबारों का पन्ना गन्दा कर देते है या टीवी पर समाचारों का बलात्कार करते है। इतना ही नहीं अब तो अपने मित्रोें को देख रहूं पदाधिकारियों से पार्टी मांगते है और वहां जम कर शराब की वैतरणी मे डुबकी लगाते हुए पापों का प्रािश्चत करते है। हमारे इलेक्टोनिक मिडिया के बंधू को तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता वे तो बन्दर बन कर नाच जमूरे नाच पर करतब दिखा रहे है। समाचार संकलन करने वाले हमारे बंधू सुबह से ही समाचारों को बेचने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते है कि आज बोहनी अच्छी हो। और उनके कैमरे में कैद विजुअल तभी चैनलोंे को जाता है जब उसका सौदा नहीं पटता और चैनलों का प्रबंधकों की हालत तो सभी जानतें है। ये मदारी है और वहां है कुछ अतिविशिष्ट बन्दर जो नाचना नहीं चाहते हों पर एक से डेढ़ लाख की पगार उन्हें भी नाचने पर मजबूर कर देते है। सवाल यह भी है कि क्या आज जो मिडिया में पूजीं लगा रहे है वह 200 करोड़ से 2000 करोड़ तक की होती है तब कोई समाज सेवा करना उनका मकसद नहीं होता है और जब मकसद साफ है तो फिर हम या तो उस मकसद को पूरा करने का माध्यम बने या फिर अलग हो जाए। यदि मकसद को पूरा करने का माध्यम बना तो कौरवों का सौनिक कहलाऐगें और अलग हुए तो भगोड़ा। तब शेष कृष्ण की सेना में जो लोग शामील होने की मंसा पाले हुए है उन्हें वह कहीं दिखता ही नहीं।
इसी विवशता पर राष्टकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है-समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल ब्याध, जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध।
सवाल यही है कि जबाब क्या है
अन्त में गालिब ने ठीक ही कहा है कि ``रगों में बहते हुए के हम नहीं कायल, जब आंख से ही न टपका तो लहू क्या है।´´
बेनकाब कर डालिये इन लोगों को हम बेसब्री से पढ़ने को लिए बेताब हैं, हम जानते हैं कि आप लोगों के पास बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो पब्लिक नहीं जानती है।
बेनकाब कर डालिये इन लोगों को हम बेसब्री से पढ़ने को लिए बेताब हैं, हम जानते हैं कि आप लोगों के पास बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो पब्लिक नहीं जानती है।
आपसे सहमत, अति शीघ्र यह कार्य होना चाहिये.
रामराम.
sanjay bengani ji k kathan se 100 feesdi sehmat
इनको तो प्रैस क्लब ऑफ इंडिया और प्रैस काउंसिल में बेनकाब करना चाहिए जिससे आगे से लोग ऐसा करने से डरें
सहिष्णुता को कमजोरी समझ बैठे हैं ये ....
अरूण साथीजी का जो अनुभव है करीब करीब मेरा भी यही हनुभाव है पर ये ज़रूर कहूँगा की पाचो उंगलिया एक सी नहीं होती है !
आज भी इमानदारी से पत्रकारिता करते साथी नज़र आते है,हां संख्या ज़रा कम है !
सही कहते हैं आप
जानते हैं अनिल भाई , जब पत्रकारिता की पढाई कर रहा था तब मन में बडा ही जोश और एक अलग ही जज्बा था , लेकिन आपने जिन दिल्ली के बडे एसी वाले पत्रकारों को करीब से जाना तो लगा कि अच्छा हुआ कि ठीक वक्त पर नौकरी में आ गया , कम से कम उन लोगों के बीच रहने की संडाध झेलने से तो बच ही गया ,इस गंदगी को दूर करने के लिए आप लोगों से बेहतर और कौन हो सकता है ,मेरी शुभकामनाएं
अजय कुमार झा
आपसे कुछ अच्छे और ठोस की ही उम्मीद है. एक जगह मैंने भी आपके प्रेस क्लब के अध्यक्ष होने के बारे में काफी उल्टी सीधी बातें टिप्पणी के रूप में पढ़ी थीं. मेरी टिप्पणी हटा दी गयी.
अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
छत्तीसगढ के पत्रकारो के लिये एक शायर का यह शेर .." जो लोग मसीहा थे हिमालय पे बस गये
हमने तो सूली से रोज़ उतारी है ज़िन्दगी "
आप से बहुत असहमतियाँ हो सकती हैं। लेकिन इस बात पर सहमति है कि छत्तीसगढ़ का आम पत्रकार बिकाऊ नहीं है। (कोई होगा भी तो आप से छुपा नहीं रह सकता)नक्सलवाद का समर्थन नहीं किया जा सकता। उस का आरंभ बिंदु शोषण और अत्याचार का विरोध रहा हो तब भी वह जनविरोधी है। वह साम्यवादी आंदोलन को भी बदनाम करता है और उसे पीछे भी ढकेलता है। उस से तो सभी मोर्चों पर लड़ाई लड़नी होगी। लेकिन इस सारे युद्ध में बीच में पिस रहा है आदिवासी। वही नक्सलवादियों की ढाल है और वही उन का आधार भी। नक्सलवादियों को परास्त करने के प्रयास उनहें आदिवासियों से अलग थलग करने से ही आरंब हो सकते हैं। वहाँ से क्यों न आरंभ किया जाए? यही इन सब लोगों का सही जवाब होगा।
ऐसे लोगों को बेनकाब करना ज़रूरी है...
ऐसे लोगों को बेनकाब करना ज़रूरी है...
काश भारत मै आप की तरह सोच रखने वाले लोग हर राज्य मै हो तो कितना अच्छा हो, मै आप से सहमत हुं.
सही कहा अनिल जी, मै तो कहूँगा कि अगर आज सही में मीडिया बिकाउ हुआ भी है तो इसे बिकाऊ भी इन्ही गद्दारों ने बनाया है !
चुन चुन कर शिनाख्त करने की जरुरत है...
(क्या हमलोग कुछ पोस्ट की प्रिंट निकलवा कर बंटवाने का जुगाड़ कर सकते हैं.. अब ये लड़ाई है तो समाधान की दिशा भी तय करनी होगी)
अनिल जी,
नक्सल समर्थक बाहरी पत्रकारों और कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का बहिष्क़ार करने का प्रेस क्लब का निर्णय स्वागत योग्य है। आपके इस निर्णय को छतीसगढ़ की जनता का पूरा समर्थन है। ये विरोध करने वाले वे लोग हैं जो कथित जनवाद के नाम पर पूरे भारत में विकास की गतिविधियों में अड़ंगा लगाते हैं, सुप्रीम कोर्ट का अपमान करते हैं, देश के दुश्मन आतंकवादियों के समर्थन में दिल्ली में धरना देते हैं, कश्मीर के अलगाववादियो का खुल्लम खुल्ला समर्थन करते हैं। ऐसे राष्ट्रद्रोहियों को कम से कम छत्तीसगढ़ की धरती पर कोइ जगह नहीं मिलनी चाहिये।
शुभकामनाएँ
-हितेन्द्र सिंह
अनिल जी मैं इस वक़्त दंतेवाडा में ही हूँ, हालत देख रहा हूँ, आगे आने समय में दंतेवाडा से ऐसे मानव अधिकारीयों का पर्दाफाश करने में लगा हूँ, मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ, हमे भी इन मानवाधिकारियों का स्वागत प्रेस क्लब में अंडे और टमाटर से करना चाहिए
बहुत सटीक और सामयिक आलेख .... क्या कहें भैय्या व्यवस्था ही सड़ेला है ... हा हा
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