सुबह-सुबह मोबाईल की स्क्रीन पर एक अंजान नम्बर चमका।थोड़ा कन्फ़्यूसियाने के बाद सोचा कौन हो सकता है?जिज्ञासा के कीड़े को शांत करने की गरज़ से रिस्क लेकर काल रिसीव कर ली।उधर से आवाज़ पहचानी-पहचानी सी थी लेकिन एकदम से पहचान नही पाया और पूछ बैठा कौन?उधर से आवाज़ आई अच्छा बेटा हम कौन?कोई नेता होता तो?जी!जी भैया!जी सर जी!और हम कौन?ठीक है बेटा?मैं अब तक़ समझ गया था कि कोई अपना ही होगा?मैं पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि वो बोला अबे कभी पुराने दोस्तों से भी बात-वात कर लिया करो!मैने कहा ऐसी बात नही है यार!यार?चल नाम तो बता बे?मैं खामोश ही रहा!वो बोला अबे नाम तक़ जानता नही,मैं कंहा से तेरा यार हो गया !मैं अब तक़ उसे पहचान चुका था!मैने कहा आगे बोल कैसे याद किया!वो भी समझ गया कि मैं उसे पहचान चुका हूं।वो बोला अबे कभी ये जानने के लिये भी फ़ोन कर लिया कर कि ज़िंदा भी हूं या मर-खप गया हूं!मैने कहा सुबह-सुबह तो शुभ-शुभ बोल!वो हंसा और बोला कि क्या शुभ और क्या अशुभ!खैर मैं भी गलत बोल गया,मरने की खबर तो तुम लोगों को पहले ही मिल जाती है,खासकर हम पुलिस वालों की,क्यों सही है ना?मैने कहा अब बकवास बंद कर और आगे बोल,फ़ोन क्यों लगाया?क्यों फ़ोन नही लगा सकता क्या? इतना भी हक़ नही है क्या?बोलेगा तो नही लगाऊंगा आगे से?मैं उसकी नाराज़गी को समझ गया और उसे दूर करने की गरज़ से बोला छोड़ ना बे,ये बता तू है कंहा आजकल!वो बोला कब्रिस्तान के बाहर!मैं बोला क्या बक़ रहा है बे!सच कह रहा हूं।मैने अपना ही सवाल बदला और फ़िर से पूछा तेरी पोस्टिंग कंहा है?
वो खिलखिलाकर कर हंसा और बोला सवाल बदलने से क्या जवाब बदल जायेगा!सच ही कह रहा हूं,कब्रिस्तान के बाहर ही पोस्टिंग समझ ले।मैंने कुछ नही कहा तो,वो बोला तक़दीर का फ़ेर है प्यारे जब तक़ ज़िंदा है तब तक़ घर में,और जिस दिन अपने नाम की गोली चली तो डायरेक्ट ट्रांसफ़र कब्रिस्तान में।तू आयेगा ना बे!के बिज़ी रहेगा किसी प्रेस काम्फ़्रेंस में,या किसी नेता के यंहा तेल लगाता बैठा रहेगा!वैसे तेरा इस मामले रिकार्ड ठीक ही है,शादी-बारात में जाये न जाये तू अंतिम यात्रा मे शामिल ज़रूर होता है।आयेगा ना बे!चक्र लेकर आयेगा या माला लेकर?मैने कहा सुबह-सुबह पी लिया है क्या?अबे पी भी लूंगा तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा?कौन चेक करेगा और करेगा भी तो क्या कर लेगा?जंहा भी ट्रांसफ़र करेगा इससे तो अच्छी ही जगह होगी?और फ़िर कौन सा पुलिस वाला ट्रांसफ़र से बचा है?किसी भी रात को बीबी-बच्चों से गले लगकर सर्च पर निकलो और पता चला दूसरे दिन खुद सर्च किये जा रहे हों?
मैने कहा छोड़ फ़लतू बातों को ये बता तेरा इधर आना नही होता क्या?होता है, लेकिन पूरा टाईम इस साहब से लेकर उस साब और इस नेता से लेकर उस नेता को तेल लगाने से ही फ़ुरसत नही मिलती।मैं खामोश ही रहा!उसका बोलना शुरू ही रहा!कालेज के दिनो से ही वो खूब बोलता था और हमेशा हंसता रहता था।हर बात को पूरी दमदारी से कहता था और गलत बात पर बहस करने से कभी पीछे नही हटता था।लेकिन आज उसकी आवाज़ मे वो दम नज़र नही आ रहा था।खोखली लग रही थी उसकी हंसी भी और आवाज़ भी।उसका बिंदास स्टाईल बिलकुल भी नही बदला था लेकिन लग रहा था कि शायद ज्यादा दिनों तक़ चलने वाला नही है।इस बीच पता नही वो क्या बड़बड़ाता रहा।मैं इस दौरान उसके साथ कालेज मे गुज़ारे दिनों मे लौट गया था।
अचानक़ मेरा ध्यान उसकी गालियों से टूटा।वो बोला अबे मैं जो बोल रहा वो सुन रहा है या मैं जबरन ही भौंक रहा हूं।मैने हड़बड़ा कर कहा नही भाई सुन रहा हूं।वो फ़िर बोला तो डर क्यों रहा है बे।तेरी आवाज़ टें क्यों बोल रही है।फ़ट रही है क्या साले सच सुनने में।कभी चलना दिखाऊंगा तुझे मौत का खौफ़ क्या होता है?वंहा शहर मे बैठ कर सुरक्षा मे चूक निकालते हो।सूचना तंत्र की असफ़लता बताते हो?सरकार का विश्वास खोना कहते हो?पुलिस से ज्यादा जनता का नक्सलियों पर विश्वास बताते हो?अबे कभी आओ और सबसे बड़ा सच देखो,मौत के खौफ़ का सच!
अब तक़ मेरा अंदर धधक रहा गुस्से का ज्वालामुखी धुंआ उगलने लगा था।मैने कहा मार क्यों नही डालते सालों को?खत्म कर दो समस्या को जड़ से!वो ज़ोर से हंसा!इस बार उसकी हंसी खोखली नही थी।वो बोला क्या समझता है कोई इस समस्या को बचाके रखना चाहता है?क्या कोई अपनी मौत का सामान खुला छोड़ देना चाहता है?सब यही चाहते हैं लेकिन्………वो एकाएक खामोश हो गया।मैने उस जानलेवा खामोशी को तोड़ा और पूछा लेकिन क्या?वो बोला लेकिन कोई चाह कर भी ऐसा नही कर सकता।पता हैं क्यों?मुझे लगा कि मैं उसके सम्मोहन मे बंध चुका था,जैसा वो कह रहा था मैं वैसा ही कर रहा था।उसके क्यों की तर्ज़ पर मैने पूछा क्यों?वो हंसा और बोला क्योंकि इस देश मे अपराधियों को ज़िंदा रहने का अधिकार है?क्योंकि लोगों के खून से होली खेलने वालों के मानवाधिकार हैं?क्योंकि उन्हे मारने पर चिल्लाने वाले तुम जैसे लोग इस समाज के ठेकदार हैं?क्योंकि उनको मामूली खरोंच भी लगने पर हाई-कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक़ याचिकाओं की बाढ ला देने वाले एनजीओ और दुसरे समाजसेवी संगठन है?
मेरी प्रतिरोध करने की ताक़त खत्म हो गई थी।उसका बोलना शुरू था।उसने सवाल किया हम लोग कौन हैं बे?क्या हम लोग इंसान नहीं हैं?क्या हमारे मानवाधिकार नही है?क्या हमे ज़िंदा रहने का हक़ नही है?क्या हमे मौत बरसाने वालों को मौत के घाट उतारने का अधिकार नही है?क्या हमारे मरने पर मानवाधिकारों का हनन नही होता?क्या हमारे मरने पर कभी किसी संगठन को किसी कोर्ट मे याचिका लगाते देखा है?पुलिस की जांच रोकने,उसकी कथित ज्यादती रोकने के लिये कानून के दरवाजे खड़खड़ाये जाते हैं?क्या कानून के रखवालों की सुरक्षा के लिये कभी ऐसा किया जाता है?गिरफ़्तारी पर रोक की मांग होती है क्या कभी नक्स्लियों के गोलियां चलाने,बारूदी सुरंग बिछाने के खिलाफ़ आवाज़ उठती है?क्या मानवाधिकार सिर्फ़ कसाब जैसे विदेशी आतंकवादी का ही होता है?क्या सालस्कर,करकरे और दूसरे पुलिस वालों का ये अधिकार नही था?क्या इस देश में पुलिस के अलावा सब मानव है?और पुलिस वालें क्या कीड़े-मकौड़े हैं?
जवाब दे ना बे!चुप क्यों है!मैंने चुप रहने मे ही भलाई समझी!वो फ़िर शुरू हो गया!अबे कीड़े-मकौड़ों तक़ को अपनी ज़िंदगी बचाने के लिये हमलावर को मार डालने का हक़ कुदरत ने दिया है,लेकिन हम लोग,हम लोगों को कानून से बांधकर हाथ में हथियार दिये गये हैं।किसी खतरनाक नक्सली को गोलियां चलाते हुये मार डालों तो सवाल ही सवाल खड़े रहते हैं।साला इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है कि जिनके जान-माल की सुरक्षा के लिये हम गोलियां चलाते हैं वही ये सवाल करते हैं कि क्या बिना गोली चलाये काम नही चल सकता?वे ही सवाल खड़ा कर देते हैं कि क्या मरने वाला सच मे नक्सली था?वे ही ये सवाल खड़ा कर देते हैं कि पुलिस ने दबाव हटाने के लिये और झूठी तारीफ़ पाने के लिये एक बेकसूर को मार डाला?जो हम पर गोलियां चलाये वो बेकसूर और जवाब मे हम गोलियां चलाये तो गुनहगार्।वाह रे सिस्टम!अबे देखता है ना पुलिस की शहादत पर सवाल उठते?बड़े-बड़े नेता भौंक उठे थे बाटला हाऊस एनकाऊंटर के बाद मोहनचंद शर्मा की शहादत पर सवाल लगाते हुये?क्या हुआ उन लोगों को दिखा नही क्या दो दर्ज़न पुलिस वालों को शिल्दा मे नक्सलियों ने मार डाला?चलो पुलिस वाले गंदे होते हैं,भ्रष्ट होतें और मानव नही कीड़े-मकौड़े होते हैं,लेकिन अभी एक दर्ज़न ग्रामीणो को भी तो मार डाला है नक्सलियों ने,क्यों खामोश है दिग्विजय सिंह?और तुम लोग उसे दिग्गी राजा कहते हो,लिखते हो,वो राजा है बे?अब क्यों खामोश है वो?क्या मुसलमान ग्रामीण मरेंगे और वो भी उत्तरप्रदेश मे मरेंगे तभी चिल्लायेगा क्या तुम लोगों का दिग्गी राजा?
फ़िर तुम्हारे वो फ़्रंट पेज पर छपने वाले मानवाधिकारवादी कंहा है?पढा है ना आज का अख़बार?मैं चुप ही रहा।वो उधर से लगभग चिल्लाया अबे पढा है या नहीं?मैं फ़िर खामोश रहा,वो गुस्से से चिल्लाया मर गया क्या बे?मैने कहा पढा है?क्या पढा है?तुम लोगों को तो वो खबर दिखी ही नही होगी।सुप्रीम कोर्ट मे छत्तीसगढ सरकार को चार सप्ताह मे जवाब देना है उस पर आदिवासियों पर अत्याचार के आरोप हैं,उस पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप हैं।क्या सरकार आदिवासियों पर अत्याचार कर रही है?क्या आदिवासियों के राहत कैम्पों मे हुये नरसंहारों,नरसंहार कह सकता हूं ना,उसने लम्बी सांस लेकर पूछा?मैने कहा हां वो नरसंहार ही था।तो क्या उस पर किसी मानवाधिकार के ठेकेदारों ने उंगली उठाई थी?क्या मेधा,क्या अरूंधती और दूसरी और सो काल्ड सेलेब्रेटिज़ वंहा पर बेमौत मारे गये लोगों पर रोई थी?क्या ये लोग सिर्फ़ विदेशी हमलों और बड़े शहरों के बम्ब धमाकों और सिर्फ़ और सिर्फ़ साम्प्रदायिक फ़्लेवर के मामलो पर ही रोते हैं और मोमबत्ती जलाते हैं?
क्या हो गया बे?चुप क्यों हैं?बहुत बक-बक करा करता था पहले तो?मैने सुना है तू भी सेलेब्रेटी टाईप का कुछ हो गया है?मैने कहा ऐसी बात नही है?ऐसी बात नही तो जवाब दे ना बे क्या पुलिस वाले मानव नही हैं?क्या उनका मानवाधिकार नही है?क्या वे कीड़े-मकौड़े हैं?मेरे पास जवाब होता तो देता।मैने उससे कहा सुन भाई एक इम्पार्टेंट काल आ रही है दूसरे फ़ोन पर उसे अटैण्ड कर लूं क्या?उसने कहा अच्छा बेटा अब हमसे भी इम्पोर्टेंट होने लग गये लोग?उसने कहा जवाब मिले तो फ़ोन लगाना और बात करना वरना कोई ज़रूरत भी नही है तुम लोगों से बात करने की।और उसने गुस्से से फ़ोन काट दिया।मैं काफ़ी देर तक़ फ़ोन को देखता रहा कि शायद आदत के अनुसार फ़ोन काटने के बाद वो दोबारा काल करेगा,पर उसका नम्बर अब तक़ स्क्रीन पर नही चमका।मेरे पास भी जवाब नही है इसलिये मेरी भी हिम्मत नही हुई उसे काल करने की।अगर आपके पास जवाब हो तो मुझे भी बताईयेगा,मेहरबानी होगी।
24 comments:
अनिल जी,
हमारे पास क्या जवाब होता, मैं तो जड होकर इसे पढता ही गया. बिल्कुल सही कहा है उसने कि क्या पुलिस वाले इंसान नही हैं.
"हम पर गोलियां चलाये वो बेकसूर और जवाब मे हम गोलियां चलाये तो गुनहगार्"
निरुत्तर हूं
प्रणाम
Adarniya Anil ji
Saadar Pranam
Sach hai police walon ka koi manvadhikar nahi hota . manvadhikar to naxaliyon ka, pakistani aatankiyon ka hota hai. Apne police wale Sena aur suraksha balon ke log to keede-makode hi hote hain . Unke Shaheed hone per koi 'Arundhtai,Teesta,Medha' etc. ko rona nahi aata. In so called manvadhikar walon ke phone bhi not reachable ho hote hain tabhi to kabristan se phone bhi inhe naa aakar aapko aate hain .
कोई सीधा संबंध न होने के बावज़ूद ऐसी बातों पर निरूत्तर हो सिर झुक जाता है अनजाने से अपराधबोध के साथ
बी एस पाबला
क्या कहें अनिल भाई, आप तो ऐसे प्रश्न खड़े कर देते हैं जिनका हमारे पास कोई उत्तर ही नहीं होता।
खोखली लग रही थी उसकी हंसी भी और आवाज़ भी।उसका बिंदास स्टाईल बिलकुल भी नही बदला था लेकिन लग रहा था कि शायद ज्यादा दिनों तक़ चलने वाला नही है।इस बीच पता नही वो क्या बड़बड़ाता रहा।
क्या जज्बे के साथ लोग पुलिस या सेना में जाते हैं .. पर होता उसका उल्टा ही है !!
mere pass jawaab hain main apne do dosto ko kho chukaa hoon ..........?
wo mere dost hain isliye maloom hai aur bahuto ka koi ...............?
यह भारत देश है मेरा. यहां कानून का राज नहीं चलता, यहां जिसकी लाठी उसकी भैंस और साथ में खेत भी लागू होता है.
नहीं, जिनके लिए फंड का पैसा नहीं वे मानव नहीं. पुलिस अपनी ड्युटी करती है, नक्सली क्रांति करते है. फर्क है. बड़ा फन्ड है नक्सलवाद के पीछे. पुलिस के पीछे कौन है? न जनता न सरकार. नमस्कार.
निःसंदेह वे भी इंसान हैं और उनके भी मानवाधिकार है चूंकि साधारण इंसानों की तुलना में उनके पास पदीय विशेषाधिकार हैं तो उन्हें भी साधारण इंसानों के बारे में ऐसा ही सोचना और करना चाहिये !
कया कहे अनिल जी आप के दोस्त की किसी भी बात का जबाब मेरे पास नही अगर है तो यही कि जो भी आंताक फ़ेलाये ओर जो भी उस का समर्थन करे उसे उसी समय........चाहे वो कोई कमीना नेता ही क्यो ना हो.....पुलिस मे भी तो हमारे परिवार से ही जाते है.....
अनिल जी आपके जज्बे और लेखन के जोर की मैं कर्द करता हूँ। आपकी स्पष्टवादिता आपकी लेखनी में दिखाई पडती है। बहुत ही रोचक शैली में दर्द को शब्द दिये हैं आपनें। सिपाही के मानवाधिकार को जोर शोर से उठाया जाना चाहिये आखिर वे हमारे और लोकतंत्र की रक्षा के लिये ही तो प्रतिबद्ध हैं।
क्या कहा जाये..हैं तो वो भी इन्सान ही!!
अनिल जी , क्या कहें।
खून खौलने लगता है , ऐसी बात पढ़कर।
इन्ही दौहरे मापदंड से हम सब त्रस्त हैं।
हमारे पुलिस वाले जिन परिस्थितियों में काम करते हैं,
इसके लिए हम उनको सलाम करते हैं।
मानवाधिकार भी अब patented है कुछ लोगों के पास . बाकी लोगों को इस शब्द का उपयोग करना भी प्रतिबंधित है .
पुलिस को मानव अधिकार कानून का संरक्षण दिलाने की बात आपके आलेख में सामने आई है यह बात ऐसी लग रही है जैसी शेर को बिल्ली से यह बिल्ली को कुत्ते से बचाओ मानव अधिकार का कानून ही पुलिस वालों की ज्यादीति करने के कारण पैदा हूआ है हालाकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में और वहां काम करने वालों पुलिसवालों को भी मानव होने के कारण मानव अधिकार मिलना चाहिए लेकिन जो चर्चा में पढ़ाई आ रहा है वह इस समस्या से कोई अन्य समस्या लगती है मेरा मानना है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस पदस्थापना के नियम सभी के लिए बराबर हों एवं कड़ाई से पालन होने चाहिए जिसका की लगातार दुरउपयोग हो रहा है इस सरकार ने परिवहन विभाग भेजने का धंधा और वहां से वापस आने पर बस्तर जाने का डंडा बना लिया है इसे एक उगाही का औजार बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है इन सभी परिस्तिथीयों को आप जानते पहचानते और समझते है मेरा आपके मित्र के प्रति सद्भावना ळे और निवेदन ळे कि उसे नियनानुसार बस्तर से बाहर निकालने में आप मदद करें तो मैं अनुग्रहित होउंगा
सादर अजय त्रिपाठी
वाकई गंभीर प्रश्न है.
रामराम.
कम लोग हैं जो दूसरी तरफ की भी बात करते हैं.
Anil Bhaiya,
aapke dost ka ek-ek lafj nashtar ki tarha antarratma ko bindh gaye hai.. Apni such suvidha bal -bachcho ki undekhi kar apni duty karne wali iis kaum ko koi manawadhikar hasil nahi hai.. Jara si Chuk hone par anushashan ka danda ya fir '' neenda Ki saza'' to pakki ... Sach hai dost aapka na to koi sangathan na hi koi kherkhwah .... Hum bhi to doshi hai ki kab tumhare achhe kamo sarahte hai ? Hai koi misal jab kisi policewale ka kisi ne bhi uske achhe kamo ke liye sarvajanik samman kiya ho... Press bhi bahut kansas ho jaya karti hai aise moko par..... Anil Bhaiya aapki niruttarta hamari pratikriya ki pratinidhi hai. Aapko sadhuwad ki dogli bhawnao ka khokhlapan apne ujagar kiya...
मन विचलित हुआ यह सब पढ़ कर .
सवाल गंभीर हैं...जवाब....?
<>क्या पुलिस वाले इंसान नही कीड़े-मकौड़े है? क्या उनका कोई मानवाधिकार नही?
है मगर उस मानवाधिकार में जान का ख़तरा भी है और उससे कमाई भी नहीं होती है, न मानव तस्करी वाली और न ही हथियार तस्करी वाली. जबकि हत्यारों के लिए मानवाधिकार चिल्लाने में पैसा भी है और ग्लैमर भी और जान का दर भी नहीं - अब आप ही सोचिये कौन सा बैंगन किस थाली में गिरेगा.
अजय त्रिपाठी जी की राय से सहमत हूँ..
कभी-कभी इस पहलु पर भी सोचना पड़ता हैं,
"मानवाधिकार" की बातें तो अब नक्सल समस्या के साथ ही उठने लगी हैं अन्यथा एक ही अधिकार था। "पुलिसाधिकार"। निष्पक्षता अनिवार्य है, चाहे कोई भी मानव हो,पीड़ित को न्याय मिलना चाहिए।
अनिल भाई,
आपके दोस्त का अब हम सब के लिए कहना है...
क्यों सांप सूंघ गया क्या...सारे के सारों के मुंह पर ताले क्यों लटक गए बे...
जय हिंद...
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