Sunday, August 8, 2010

ज़रूरतमंद को देने के लिये द्स रूपये नही और…… !

एक बहुत छोटी सी पोस्ट जिसमे बहुत बड़ा सवाल भी है।मोबाईल फ़ोन जितना सुविधाजनक है उतना ही वो अपनी एसएमएस सेवा के कारण परेशानी का सबब भी बनता जा रहा है।टेलीमार्केटिंग ने तो और परेशानी बढा दी है ऐसे मे बिना पढे मैसेज डीलिट करने का चलन भी बन गया है और मै भी ऐसा ही करने लगा हूं।कल भी मैसेज बाक्स को खाली कर रहा था कि रवि टेम्भरे के मैसेज ने मुझे सोचने पर मज़बूर कर दिया।दो लाईन के मैसेज बहुत कुछ कह रहा था।उसने लिखा था गरीबों को देने के लिये दस रूपये नही और होटल मे टीप देते समय सौ रूपये भी कम लगते हैं? बहुत बड़ा सवाल ऊठाया था रवि ने।सच मे हम चाहे गरीब कह लिजिये या ज़रूरतमंद उसे देन के लिये हमारा हाथ जेब मे जाने से पहले ही उसके बारे मे दिमाग मे सौ सवाल खड़े हो जाते हैं और होटल मे चमचमाती वर्दी मे मुस्कुरा कर टेबल पर रखने वाले को टीप देते समय हम अपनी हैसियत जताने के लिये टीप की रकम बढा देते हैं?आखिर क्यों?ये ज़रूर कहा जा सकता है कि वेटर हमारी बेहतरीन सेवा करता है और उसे उसका ईनाम मिलना ही चाहिये मगर हमे और भी तो कंही किसी ज़रुरतमंद की दिल खोलकर सेवा करना चाहिये,बिना इस बात की परवाह किये अरे कोई क्या सोचेगा?

19 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

आपके दिल के यही जज्बात आपको उंचाईयों पर ले जाते हैं।

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यही तो अंतर होता है सड़क पर खडे आम आदमी और पांच तारा होटल के खास आदमी में :)

उम्मतें said...

बहुत हुई होटल की टीप की बातें रवि जी से कहिये अभी के अभी आपकी पोस्ट में टीप दें !

दिनेशराय द्विवेदी said...

ये भी एक संस्कृति है। पर सही संस्कृति तो वह होगी जिस में न तो टिप की जरूरत हो और न किसी को मदद की।

डॉ टी एस दराल said...

सही कहा , ज़रूरतमंद की यथोचित सहायता अवश्य करनी चाहिए । लेकिन आजकल असली और नकली में भेद करना बड़ा मुश्किल होता है ।

जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो अनिल जी ।

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर लिखा आप ने, वेसे मै कभी भी वेटर को टिप देने के हक मै नही साथ वाले जवर दस्ती दिलवा देते है.... वो नोकरी किस बात की करता है, उसे तो वहां से तन्खा मिलती है. बाकी आप की बात से सहमत,

vandana gupta said...

अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (9/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो.

Unknown said...

bilkul sahi hai sir ji

रवि कुमार, रावतभाटा said...

दिनेश जी बढिया सा कुछ कह गये हैं...

बेहतर...

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सही...भतीजे जन्मदिन की शुभकामनाएं.

रामराम.

कडुवासच said...

... सार्थक पोस्ट !!!

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं!

राज भाटिय़ा said...

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं!

Udan Tashtari said...

सही है भाई..


जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़े सार्थक विचार। हम सबको यह याद रखना चाहिये।

P.N. Subramanian said...

हमें भी याद है १८ वर्ष की अवस्था में चेन्नई सेंट्रल स्टेशन के ऊपर बने रेस्तोरां में बेरे के द्वारा सलाम ठोके जानेकी लालसा लिए उसे एक रूपया दिया था.

अन्तर सोहिल said...

सचमुच के जरूरतमंद और भीख को पेशा बना लेने वालों में फर्क बारिक सा होता है। जिनका मांगना ही पेशा है उन्हें दस रुपये तो क्या एक पैसा भी देना, मुझे तो सही नहीं लगता।
दूसरी बात वेटर को टिप कभी-कभी दे सकते हैं अगर हम खुश हुये हैं उसकी सेवा से और मेहनत की कद्र भी होनी चाहिये। ज्यादातर होटलों आदि में वेटरों की तनख्वाह बहुत कम होती है और वे टिप पाने के भरोसे ही इस सेवा में आते हैं।

प्रणाम स्वीकार करें

arvind said...

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं

arvind said...

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं

डॉ महेश सिन्हा said...

जीवन के विरोधाभाष का एक और उदाहरण। यह तो जीवन के हर क्षेत्र में है । जो सामने होता है वही पुरष्कृत होता है । होटल में खाना बनाने वाले को कितने लोग जानते हैं ? जिस बात का हम मूल्य देते हैं उसके सृजनकर्ता को कौन जानता है । वहीं अगर खाना पसंद नहीं आया तो गाली खाने का हकदार वह बन जाता है । सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को एक नियत रोजी मिलती है । इसलिए कई होटल में सर्विस चार्ज लिया जाता है , जिसे उस संस्थान के लोगों में उनके पद के अनुसार बाँट दिया जाता है । इसके बावजूद वैटर उम्मीद रखता है :)। आपका भी अगर उस जगह नियमित जाना है तो आपको अपनी एक साख बनाए रखनी पड़ती है :)
द्विवेदी जी जिस बात की परिकल्पना कर रहे हैं वह एक सिद्धान्त ही हो सकता है ।

पोस्ट से लंबा कमेन्ट हो गया हा हा