Wednesday, May 25, 2011

शहीदों का चेहरा पत्थरों से कुचल रहे हैं नक्सली,कंहा हो कथित मानवाधिकारवादियों,क्या ये मानवाधिकार का हनन नही है?

नक्सलियों की हरकतें अब घिनौनी होती जा रही है और अब जो कोई भी उनका किसी भी मज़बूरी से समर्थन करेगा उसे कम से इंसानियत का समर्थन तो नही कहा जायेगा।ये कंहा की नीति या विरोध का ये कौन सा तरीका है कि आप किसी मृत व्यक्ति का चेहरा पत्थरों से कुचल दो।आखिर एक व्यक्ति को जिसे आप अपना दुश्मन मान रहे हैं उसकी जान लेने से ज्यादा आप और क्या बदला लेंगे?मृत्यु के बाद आप अगर किसी का चेहरा पत्थरों से कुचलते हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ हैवानियत ही कहलायेगा।ये नफ़रत की पराकाष्ठा है और हताशा से ज्यादा कुछ भी नही।                                                                                                                                                                 नेशनल मीडिया से तो खैर बहुत ज्यादा उम्मीद की भी नही जा सकती,पता नही उनका हिडन एजेण्डा क्या है?उनके लिये तो एक बच्चे का अपनी गलती से दीवारों के बीच फ़ंस जाना ही नेशनल और हाट न्यूज़ है?खैर जाने दीजिये।ईश्वर उनको सदबुद्धी दे और उनको भी जो आपने आप को मानव अधिकारों का रखवाला कहते हैं।सोशलाईट्स कहलाते हैं।जो होमो सेक्सुयलज़ को साथ रहने का अधिकार दिलाने की लडाई लड़ते हैं।जो बात-बात पे पीआईएल लगाते रहते हैं।और पता नही कैसी और क्या-क्या तिकड़म करके बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार लेते रहते हैं।उन सभी अति संवेदनशील महामानवो से मेरा ये सवाल है कि क्या किसी शहीद,(जाने दीजिये शहीद शब्द से हो सकता है कि उन लोगों को आपत्ति हो जाये)या किसी भी मृत व्यक्ति का चेहरा पत्थरों से कुचलना क्या मानवाधिकरों का हनन नही है?क्या ऐसा करने वालों को अब भी ह्त्यारा कहने की बजाये अन्याय या व्यव्स्था के खिलाफ़ संघर्ष  करने वाला ही कहा जायेगा?पता नही क्यों और कैसे नकलियों को इसी देश के रहने वाले कथित सभ्य और ज़रुरत से ज्यादा पढे लिखे विद्वान लोग समर्थन करते हैं?शर्म भी नही आती ,बेशर्मों को सरे आम उनके समर्थकों को रिहा कराने के लिये पूरी ताकत लगाते हुये।                                        ऐसे ही लोगों मे एक स्वामी जी भी हैं।पता नही किसिने उनका नाम रखा है स्वामी या खुद ही खुद की इज़्ज़त बढाने के लिये खुद को स्वामी कहने लगे।खैर जो भी हो उनकी तो डायरेक्ट एण्ट्री है नक्सलियों के गुप्त ठिकानोम तक़।उनको तो एक बार आना चाहिये और नक्सलियों से पूछना चाहिये कि लडाई का ये कौन सा तरीका है,कि किसी को जान से मार दो और फ़िर उसके बाद अपनी नफ़रत जताने के लिये मृतकों के चेहरे पत्थरों से कुचल दो?दम है तो पूछे आकर?कोई भी पूछे ?जो नक्सलियों को अन्याय के खिलाफ़ लड़ने वाला मानता है ऐसे हर शख्स से मेरा अनुरोध है कि वे जाकर उनसे ये सवाल पूछे?                                                   नक्सलियों ने दो दिन पहले ही यंहा राजधानी रायपुर के करीब गरियाबंद के जंगलों मे कायरों की तरह गलत सूचना देकर पुलिस पार्टी को जंगल मे बुलाया और उन्हे गोलियों से भून डाला।इस वारदात में एक एएसपी राजेश पवार समेत 11 जवान शहीद हो गये।उन्हे तो अपनी सुमो गाड़ी से उतरने और हथियार चलाने का मौका भी नही दिया कायरों ने।और सबसे शर्म की बात तो ये  है कि मरने के बाद सभी शहीदों के चेहरों को पत्थरों से कुचल दिया गया।कुछ की लाश वंहा ए खींच कर दूर खंदको में फ़ेंक दी।क्या कहेंगे इसे आप?अन्याय और व्यव्स्था के खिलाफ़ संघर्ष?क्या ये नीति है?क्या इसे किसी भी तरह से जायज ठहराया ज सकता है?क्या इस वारदात की जांच नही होनी चाहिये?                                                                                                                छत्तीसगढ में भूख से आधा दर्ज़न लोगों की मौत की फ़र्ज़ी खबर पर उसकी जांच कराने के लिये दिल्ली में बैठे विदेशी रोकड़े से देश में ऐश की ज़िंदगी जीने वाले और बात बात पर हल्ला मचाने वाले लोग क्या इस वारदात की जांच कराने की मांग करेंगे?क्या वे शैतान को भी शर्म आ जाये ऐसा काम करने वाले लोगों को सज़ा देने की मांग करेंगे?क्या उनके घर में एकाध मोमबत्ती बची होगी,छत्तीसगढ के जवानों की शहादत पर जलाने के लिये?थोड़ी बहुत शर्म बची हो,या विदेशी माल के अलावा इस देश की मिट्टी-हवा-पानी की उन्हे कदर हो तो बोलें कुछ?कुछ भी बोले चाहे तो इस कृत्य को सही ठहरा दें,मगर कुछ बोलें।अगर वे खामोश रहते हैं तो ये उनकी मिलीभगत क सबूत ही होगा।                                                                                                                       साले चले आते हैं ,छत्तीसगढ जांच करने।यंहा मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है?हनन हो रहा है?आदिवासियों का शोषण हो रहा है?और हर विज़िट में बस्तर के आदिवसियों की दुर्लभ कलाकृतियां ले जाते हैं अपने ड्राईंग रूम मे सजाने के लिये।दम है तो आये और कहे कि नक्स्लियों ने जो किया वो शैतानियत को शर्मा देने वाला है?ये भारतीय संस्कृति मे रचे-पले-बढे इंसान का तो काम हो ही नही सकता।ऐसा करने की इज़ाज़त कोई भी धर्म नही देता है?फ़िर भी उनके खिलाफ़ एक आवाज़ नही उठ रही है दिल्ली से लेकर देश के किसी भी हिस्से से।हां अगर छत्तीसगढ सरकार नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को मज़बूत करने के आरोप मे किसी कथित मानवसेवी डा को गिरफ़्तार करती है तो देश के कोने-कोने से क्या विदेशों से भी आवाज़ उठने लगती है।उसे अन्याय,ज्यादती,मानवाधिकार का हनन और जाने क्या क्या कहा जाता है।और तो और उनके खिलाफ़ चल रही अदालती कार्रवाई देखने के लिये युरोपियन यूनियन के लोग भी आ जाते हैं।और अब सब की बोलती बंद है।युरोपियन यूनियन वालों को क्या अब नही आना चाहिये ये सब देखने के लिये?ज़िंदा आदमी को जेल में डाला तो सारी दुनिया में हंगामा मच गया और अब इंसानियत के नाम पर कलंक ,हैवानियत का नंगा नाच देख रहे हैं वही सब लोग खामोशी से।क्या करें गले तक़ विदेशी माल ठूंसा गया है,भौंक भी तो नही सकते।और फ़िर भौंकेंगे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने विदेशी आकाओं के इशारों पर और वो भी अपने ही देश को कमज़ोर करने वालों के समर्थन में।शर्म आती है ऐसे फ़र्ज़ी लोगों की फ़ौज़ पर्।थू है उन पर और उनके समर्थकों पर्।

10 comments:

Arunesh c dave said...

मै खुद भी मर्माहत हूं सोचता हूं यदि ये विचारो का युद्ध लड़ रहे हैं तो उसमे इतनी नफ़रत कैसे आ गयी मरे हुये आदमियो के शवो को कुचलना बेहद शर्मनाक है । कभी ये भी सोचता हूं कि हर पक्ष के दो पहलू होते है क्या हमारे पुलिस वालो ने कोई ऐसा ज्यादतिया तो नही की होंगी कि नक्सलवाद का समर्थन करने वाले मरे हुये योद्धाओ का सर कुचल रहे हैं इस नफ़रत की जड़ कहां है यह हमे मालूम नही पड़ सकता वह इसिलिये कि भारत की पत्रकारिता कुंद हो गयी है सरकार पोषित पत्रकार सरकार का मुख प्रष्ठ है और विदेशो से पैसा प्राप्त प्त्रकार नक्सलवाद के निश्पक्ष खबरे हम तक पहुंचेगी नही तो हम सच जानेंगे कैसे

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

भईया, लगता है ये मानवाधिकार वाले आतताईयों को छोड़कर और किसी को मानव मानते ही नहीं.... यदि उन पर उंगली भी उठ जाये तो इन्हें बहुत दर्द होने लगता है लेकिन उनके द्वारा किये गये अमानवीय दुष्कृत्य इन्हें नज़र भी नहीं आते.... “छद्म मानवाधिकार आयोग” की तो छोडिये हमारी अपनी सरकार ने आज तक निंदा के अलावा कुछ नहीं किया... जाने इन कुम्भकरणों को जगाने के लिए और कितने धमाकों की आवश्यकता है?
निर्भीक लेखन के लिए साधुवाद....
सादर....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

जिस देश में माओवादी गतिविधियों के लिए जेल हो और उसे योजना आयोग ससम्मान कुर्सी प्रदान करे,वहां मानवायोग की दुहाई तो भैंस के आगे बीन जैसा हुआ ना!

निवेदिता श्रीवास्तव said...

बहुत ज्वलन्त आलेख लिखा और सारे सवाल भी सही हैं ,पर शायद किसी के भी पास सुनने का समय नही है ......मानव आयोग तो जैसे ही किसी कसाब सरीखे को फ़ांसी देने की बात होगी नारे लगाते चले आयेंगे ,क्यों कि उनका कोई परिजन सैनिक नहीं होगा ।जिन के दम से हम सब खुली हवा मे सांसे ले पा रहे हैं,उनका सम्मान करना तो आना ही चाहिये !

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

यह पहली बार नहीं है जब मृत जवानों का चेहरा क्षत-विक्षत किया गया है....पहले भी ऐसा होता रहा है. प्रायः मृत जवानों में अधिकाँश दूसरे प्रान्तों से आये नए रंगरूट होते हैं, उनसे किसी की क्या दुश्मनी ? यदि नक्सलियों का यह शोषण के विरुद्ध विद्रोह है तो ये शीर्ष शोषकों को कभी कोई क्षति पहुंचाने की जुर्रत क्यों नहीं करते ? इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें हर चुनाव के समय उनसे भारी टैक्स जो मिलता है . हर साल अरबों के घोटाले करने वाले कड़ी सुरक्षा पहरे में निर्लज्जतापूर्वक खींसें निपोरे घूमते रहते हैं ....नक्सलियों की दुश्मनी उनसे भी नहीं है....न उन अधिकारियों से है जो रिश्वत को अपना अनिवार्य धर्म मान बैठे हैं. मानवाधिकारवादियों की बात करना ही निरर्थक है. स्वयंभू स्वामी को दलाली के लिए जब नक्सली बुलायेंगे वह दौड़ा चला आयेगा ...अभी ज़रुरत के समय आपके बुलाने से क्यों आयेगा ? प्रवासी भारतीय भी यथार्थ जानकारी के अभाव में मानावाधिकार वालों के सुर में सुर मिलाने लगते हैं ..मेरा उनसे अनुरोध है की वे भारत आकर वास्तविकता को पहले जान लें. नक्सली गतिविधियाँ घोर निंदनीय ....अमानवीय हैं.

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़ी ही दर्दनाक परिस्थितियाँ हैं।

SANDEEP PANWAR said...

यही तो इस देश का दुर्भाग्य है, गलत को गलत नहीं माना जाता है,

Atul Shrivastava said...

नक्‍सलियों का तो कोई इमान धरम नहीं है।
उनके बारे में क्‍या बात करना....उन्‍हें क्‍या हैवानियत के बारे में कहना..... लेकिन ये रिटायर्ड आईएएस वालों की संस्‍था जिसे मानवाधिकार आयोग के नाम से जाना जाता है.... उनको भी शरम नहीं आती...


क्‍सलियों ने शहीदों के शवों के साथ घिनौनी हरकत की पर किसी की जुबान नही खुली.... अंधे और बहरे हो गए हैं सब के सब।

सच में शर्म शर्म शर्म ऐसे लोगों के लिए

Udan Tashtari said...

क्या कहा जाये सिवाय इन स्थितियों पर अफसोस जताने के...

हितेन्द्र said...

गुस्सा आता है|

जब माओवादी इस देश में योजना आयोग में बैठकर योजनाए बनाने लगे हैं तो ऐसे में क्या उम्मीद करें?