बहुत दगा खा चुके। अब दगा बर्दाश्त नहीं है और बर्दाश्त की सारी
हदें भी पार हो चुकी है। आम आदमी दगा खाते खाते जल भुनकर खुद
ज्वालामुखी बन कर धधक रहा है जो कभी भी फट पडऩे को तैयार
खड़ा है। सबसे दगा खाकर एक बार फिर आपसे उ मीद जागी है।
ऐसा नहीं है कि आपने कभी दगा नहीं दिया है। दगाबाजी आपकी
फितरत तो नहीं है पर शायद इस देश में आजादी के बाद से आम
आदमी को दगा खाते देख आपने भी कई बार बहती में हाथ धो लिये
हैं। खैर तब दमखम था सह गए लेकिन अब दम निकल चुका है। उ मीदें
आखिरी सांसें गिन रही। पारे की रिकार्ड तोड़ उछाल से
क पीटिशन करती महंगाई ने सारे कसबल ढीले कर दिये हैं।
आपसे उ मीद बाकी है। हालांकि आपने शुरूआत में दम निकाल ही
दिया था। आपने लेटलतीफी में दीदी की रेल को भी पीछे छोड़ दिया।
एक नहीं पूरे चार दिन देर से आ रहे हैं आप। इस बीच कहंी
कोई खबर नहीं। खैर देर आयद, दुरूस्त आयद। आपकी देरी से
कोई भी नाराज नहीं है वर्ना क्या पता आप फिर से रास्ता भटक
जाओ। और अगर आप रास्ता भटके तो फिर तो सत्यानाश तय है।
महंगाई के इस दौर में बीज से लेकर खाद की कीमत और मजदूरी
तक सेंसेक्स की तरह उछाल मार रहे हैं। लागत पारे की तरह
ऊपर उठ रही है। ऐसे में मानसून महाराज अगर आपने दगाबाजी की
तो फिर शायद मानसून का मजा नहीं मंदी की मौत ही टूट पड़ेगी।
किसान पहले ही टूट-फूट कर चूर-चूर हो चुका है।
बिचौलियों और दलालों के इस देश में किसान सिर्फ अन्न पैदा कर
सकता है, सारे देश को खिला सकता है मगर शायद वो खुद ही नहीं
खा सकता। उसकी हालत पेड़, पेड़ नहंी ठूंठ की सी हो गई है
जो अपने फल नहीं खा सकता। उसे लागत से थोड़ा बहुत ज्यादा मिल जाए
तो भी खुश रहता है मगर ये तब संभव है जब आप दगाबाजी न करो।
वरना फिर सुर्खियों में होगा देश का अन्नदाता किसान आत्महत्याओं
के कारण । सो हे मानसून महाराज आग उगलते सूरज महाराज से
त्रस्त लोगों का बरसात में भीगकर रेन-डांस करने, गर्मागर्म
पकौड़े-चाय, दारू-शारू का मजा लेने वालों का तो आप याल रखते
ही हैं जरा किसानों का भी याल रखना। वरना वो बेचारा फिर
गाता फिरेगा दगा नहीं देना रे दगा नहंी देना।
3 comments:
मानसून से उम्मीद है अब..
ग़रीब के नसीब में एक यही सौग़ात बची है शायद
जिस पैर न फटी बवाई
क्या जाने वो पीर पराई
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