19 मई 2008 को मानवाधिकार की टीम दिल्ली से बस्तर आई थी.उस समय लिखी गई मै अपनी एक पोस्ट आज फिर शेयर कर रहा हूं."अपने ही घर में शरणार्थी हो गया है बस्तर का आदिवासी".. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केन्द्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम बस्तर आई है। बड़े अफसरों से सजी टीम नक्सल विरोधी आंदोलन सलवा-जुडूम के राहत शिविरों की जांच कर देखेगी वहां मानव अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा । प्रशासनिक और राजनैतिक कार्यवाहियों से बस्तर के आदिवासियों को क्या मिल पायेगा ये तो पता नहीं लेकिन यहां ये तय है कि बस्तर का आदिवासी अपने ही घर में शरणार्थी हो गया है।
खुले आसमान के नीचे घनघोर घने जंगलों से अपनी रोटी खुद छीन कर खाने वाला आदिवासी अब राहत शिविरों में सरकारी खाना खाने के लिये लादन लगाता है। नक्सलियों और सरकार इन दो पाटों के बीच फंसे आदिवासी ने जब खुद को दोनों से मुक्त कराने के लिये सिर उठाकर इकट्ठा होना शुरू किया तो उनके आंदोलन सलवा-जुडूम को भाजपा सरकार ने संरक्षण देकर हाईजैक करने की कोशिश की। उसी के साथ कांग्रेस के नेता महेन्द्र कर्मा ने भी इस मुद्दे को सरकार के हाथ जाता देख उस पर अपना दावा ठोक दिया।
बस यहीं से आदिवासियों के सलवा-जुडूम पर भाजपा सरकार और कांग्रेस की मुहर लग गई और आंदोलन पर नक्सली कहर बढ़ता चला गया। नतीजन जंगल में आजाद घूमने वाले आदिवासी अपने घरों को छोड़कर सुरक्षा के नाम राहत शिविरों में रहने को मजबूर हो गये । अब जो अपने घरों को छोड़ सरकारी राहत शिविरों में रहेगा उसे शरणार्थी ही तो कहा जाएगा। न कोई भूकंप आया , न कोई बाढ़ और न ही कोई ज्वालामुखी फटा लेकिन बस्तर में सरकारी राहत शिविर खुल गए क्योंकि वहां प्राकृतिक नहीं मानव निर्मित बारूदी धमाके होने लगे थे।
दोरनापाल, जगरगुंडा समेत एक दर्जन से ज्यादा सरकारी राहत शिविर में जंगल का आजाद राजा आदिवासी सरकारी टाईम टेबल के अनुसार एक रिफ्यूजी की जिंदगी जीने पर मजबूर है। उसकी आजादी छिन चुकी है और जिंदगी खतरे में पड़ गई है। शिविर छोड़ना है सरकारी ठप्पा लग जाने के कारण नक्सलियों के निशाने पर आना तय हो चुका है। दरअसल बस्तर का आदिवासी दोतरफा मार झेल रहा है। सरकार की बात करता है तो नक्सलियों का निशाना बनता है और अगर सरकार के साथ नहीं जाता तो नक्सलियों का मुखबीर होने के संदेह में पुलिस का टारगेट हो जाता है।
ऐसे में कायदे से देखा तो नुकसान सिर्फ और सिर्फ आदिवासियों का हो रहा है। उनके नुकसान से शायद दूसरे प्रदेश के बेरोजगारी से तंग आकर बंदूक उठाने वाले नौजवानों को या बस्तर से 400 किलोमीटर दूर प्रदेश की राजधानी रायपुर में बैठे हुक्मरानों का बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं है। नक्सली बंदूक के दम पर वहां आदिवासियों के शोषण के नाम पर सत्ता कायम करना चाहते है तो सरकार अपनी सत्ता बचाए रखने के लिये फोर्स झोंक रही है। सरकार और नक्सली दोनों के ही शक्ति प्रदर्शन के बीच निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे है। सरकारी फोर्स के बूटों की कीलें या नक्सलियों के जूतों की ठोकरें बस्तर की शांत धरती को लहुलुहान कर रही है।
भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के अलावा विदेशी पैसों से राजधानी दिल्ली और रायपुर में बैठे एनजीओं चलाने वाले समाज के कथित ठेकेदारों की एक बड़ी फौज भी इस बात को लेकर चिन्तित है। उन्हें भी लगता है वहां मानव अधिकारों का उल्लघंन हो रहा है। अब सवाल ये उठता है कि क्या एक आदमी का निर्दोष मारा जाना इस बात को साबित करने के लिये काफी नहीं है। जान तो फिर जान है चाहे वो आदिवासी की हो या वहां पर पुलिस या रिजर्व फोर्स के जवानों की क्यों न हो। लोग मर रहें है, अपना घर छोड़कर शिविरों में रह रहें है। कभी कोई नेता जाता है तो कभी अफसरों की टीम जाती है। केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटील भी वहां गए। उन्होंने भी कहा कि नक्सलियों से बात हो सकती है। अब बात कौन करेगा, कैसे करेगा ये पता नहीं! और इसके साथ ही उन्होंने राज्य की भाजपा सरकार को हर संभव मदद करने का वादा भी कर दिया।
राजनैतिक भूलभूलैया में भटक रहे बस्तर को आजादी के आधा दशक बीत जाने के बाद भी विकास के नाम पर कुछ भी नहीं मिला था। हाल के सालों में जरूर कुछ इलाकों में सड़के बनना शुरू हुई थी और विकास के नाम गांवों में हैंडपंप खोदे गए थे। कुछ गांवों की तकदीर थोड़ी ज्यादा अच्छी थी जहां प्राइमरी स्कूल बने और बहुत ज्यादा अच्छी तकदीर वाले गांवों में बिना डाक्टर, स्टॉफ और दवाईयों वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी बने । बस इससे ज्यादा आदिवासियों का कुछ नहीं मिला और आजादी के सालों बाद जो कुछ मिला उसे अब नक्सली निशाना बना रहे है। अभी हाल ही में नौ स्कूलों की बिल्डिंग ध्वस्त कर दी। वैसे भी गांव छोड़कर कैम्प में रहने के बाद गांव के गांव खाली हो गए है। उन सरकारी बिल्डिगों में अब रातों का या तो गश्त पर निकली पुलिस पार्टियां आराम करती है या नक्सली। और इस बीच आमना-सामना हो जाए तो जंगल गोलियों की गूंज से कांप उठता है और कांप उठते है राहत शिविरों के शरणार्थी भी। आखिर कैम्प से वापसी का कोई रास्ता भी है। क्या जंगल की खुली हवा में वे सांस ले पायेंगे। ताड़ी और सल्फी के मस्त के मादक सुरूर में वे झूम पायेंगे! ये सारे सवाल कैम्प में ही उठते होंगे और वहीं दम तोड़ देते होंगे! इन सवालों को शहर तक आने के लिये शायद कोई रास्ता नहीं मिल रहा है।
1 comment:
सब आदिवासियों के हितैषी बने हैं, हित हो नहीं पा रहा है।
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