Thursday, July 17, 2008

क्या एक जवान की जान की कीमत सिर्फ 10 लाख रुपए है ?

उड़ीसा के मलकानगिरी में फिर नक्सलियों ने कहर बरपाया। इस बार 21 जवान शहीद हो गये। उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने शहीदों के परिजनों को 10 लाख की सहायता की घोषणा कर दी है। क्या ये सरकारी औपचारिकता शहीद जवानों के परिवार के गम को कम कर खुशियां दे सकेगा।
असमय जान गंवा देने का मतलब होता है पूरे परिवार के भविष्य को अनिश्चय के भंवर जाल में छोड़ देना। आखिर मलकानगिरी में अपनी डयूटी पूरी कर रहें उन जवानों का दोष क्या है। क्यों उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। क्या सरकार की नौकरी करना पाप है। क्या कानून व्यवस्था को बनाए रखना गैर कानूनी है। क्या अन्याय के खिलाफ लड़ना अन्याय है। आखिर पुलिस वाले भी तो इंसान ही है। वे भी दूसरी कोई नौकरी नहीं मिलने की वजह से पुलिस में नहीं गये थे। उन्हें नौकरी मिली और रोजी-रोटी कमाकर अपने परिवार को पालने के लिये वे कामपर चले गये। जान गंवाने के लिये नहीं की थी उन्होंने नौकरी या शहीद होकर घर वालों को 10 लाख रूपये की सहायता कहियें या इनाम या फिर जान की कीमत दिलाने के लिये नौकरी नहीं की थी।

ये तो सरकार को सोचना चाहिये कि क्या 10 लाख रूपये में वे किसी जवान के असमय अनाथ हो रहे बच्चे को उसके पिता का प्यार दे सकती है। भरी जवानी विधवा होने वाली अभागन को सुहाग का सहारा दे सकती है। क्या 10 लाख रूपये में बूढ़े मां-बाप की आंखों का तारा उनका आखिरी सहारा लौटा सकती है। अगर 10 लाख रूपये में किसी परिवार की खुशियां लौट सकती है तो कोई भी हंसी-खुशी जान देने को तैयार हो जायेगा।

पता नही राज्य सरकार कहें या केन्द्र सरकार को जवानों के शहीद होने के बाद उनके परिवार पर टूटने वाले दु:खों का अहसास क्यों नहीं होता। उनकी शहादत के बाद परिवार के लालन-पालन का जिम्मा अनुकंपा नियुक्ति पर निर्भर हो जाता है। अनुकंपा नियुक्ति के नियमों की जटिलताओं पर बहस करने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है लेकिन इतना तय है कि एक इंस्पेक्टर के परिवार की जीवनशैली एक सिपाही के परिवार की जीवनशैली से अलग होती है और इंस्पेक्टर के शहीद होने पर उसकी पत्नी की नियुक्ति सिपाही के पद पर ही हो सकती है। एक अच्छी-खासी तनख्वाह वाले परिवार को अपने मुखिया को गंवाने के बाद कम तनख्वाह पर गुजर बसर करने पर मजबूर होना पड़ता है।

सरकारों को मैं सलाह नही देना चाहता लेकिन उन्हें चाहिये कि शहीद होने वालों के आश्रितों को अनुकंपा नियुक्ति समान पद और समान वेतन पर मिलनी चाहिये ताकि उनकी जीवनशैली कम तनख्वा हके कारण प्रभावित न हो।
खैर भगवान न करें फिर कोई शहीद हो और उनके परिवार के लोग अनुकंपा नियुक्ति और सहायता राशि लेने सरकार का मुंह देखें। सरकार को चाहिये नक्सल समस्या से निपटने के लिये ठोस कदम उठायें। ठोस माने शुद्व ठोस उनके एन्टी मांइस व्हीकल की तरह ठोस नहीं जो सिर्फ नाम का एन्टी मांइस हो। अब एन्टी मांइस व्हीकल की विश्वसनीयता पर भी बहस नहीं करनी चाहिये। यह पहला मौका नहीं है जब नक्सलियों ने लैण्ड मांइस से एन्टी मांइस व्हीकल उड़ाया हो। इससे पहले छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी नक्सली एण्टी मांइस व्हीकल के परखच्चे उड़ा चुके है। सरकार को अपने सुरक्षा उपायों और हथियारों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर एक बार फिर से गौर फरमा लेना चाहिये।
मलकानगिरी नक्सलियों से कहर से पहली बार नहीं कांप रही है। पिछले 29 जून को भी नक्सलियों ने मलकान गिरी को थर्रा दिया था। तब विशेष रूप से प्रशिक्षित ग्रे-हाउंड पुलिस दस्ते को लांच से बांध पार करते समय हमलाकर बांध में ही डूबा दिया था। तब 38 जवान बेमौत मारे गये थे। उनकी शहादत को लोग भूल भी नहीं पाये कि गुरूवार 17 जुलाई को फिर 20 से ज्यादा शहीद हो गये। सरकार शायद इस बार भी 10 लाख रूपये की सहायता की घोषणा करने के बाद अगली वारदात के इंतजार में खामोश बैठ जायेगी। जवान मर रहें है और मरते रहेंगे क्योंकि वे जवान है, नेता नहीं ।

6 comments:

सतीश पंचम said...

अच्छा सवाल उठाया है।

Unknown said...

नक्सली भी तो डरपोक हैं, नेताओं को मार नहीं पाते तो गुस्सा आम लोगों पर उतारते हैं… यदि वाकई उनके आंदोलन में दम है तो जनता को साथ लेकर भ्रष्ट नेताओं को खत्म करें तब बात बनेगी…

राज भाटिय़ा said...

हर समस्या का हल हे अगर कोई करना चाहे तो. मुझे तो लगता हे यह नक्सल समस्या भी इन्ही नेतायो की मिली भगत ही हे,वरना गरीब जनता ही क्यो मरती हे, बाकी सुरेश जी ने बात पुरी कर दी हे

photo said...

koi matlab nahe bhai shab in naalayk logo k liy aap aapna khun mat jalow koi fark nahe padayga

Som said...

Anil Ji. Apka Lekh main udaye gaye prashno se me sahmat hoo. Wakai, Sarkar Naxali Mamale Main jyada prayas nahin kar rahi hai. Mujhe Lagta hai Neta log vote pane ke liye Naxaliyo ka picche se samarthan karte hai.

شہروز said...

भाई इस तरफ आना अच्छा लगा.दिल्ली से दूर के लोग ज्यादा श्रेष्ठ काम कर रहे हैं.
ज़ोर-क़लम और ज्यादा.