छत्तीसगढ़ में जो न हो वो कम है। सात महीने पहले भेजा गया करोड़ों का चावल कहाँ गया पता नहीं। सात महीने बाद अब जाकर अफसरों को होश आया कि चावल गायब हो गया है। आनन-फानन में जुर्म दर्ज करा दिया गया है। अब सवाल इस बात का है कि सात महीने तक आखिर सरकारी अफसर कर क्या रहे थे। इसे मिलीभगत न समझें तो क्या समझें।
कभी-कभी खराब लगता है अपनी ही बुराई करना। लेकिन मजबूरी है। रोज घोटाले हो रहे हैं, आए दिन नक्सली वारदात कर देते हैं। अच्छी ख़बर को ढूंढने से नहीं मिलती। अब फर्जी गरीबों का मामला ठंडा भी नहीं हुआ है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के चावल की अफरा-तफरी का मामला सामने आ गया है। कल ही मैंने ब्लॉग पर फर्जी गरीबों की सरकारी दुकान खुलने की ख़बर पोस्ट की थी। उसमें भी चावल घोटालों का जिक्र किया था। तब शायद मुझे नहीं पता था कि अगली पोस्ट चावल घोटाले पर ही लिखनी पड़ेगी।
बेहद चौंका देने वाला मामला सामने आया है। दिसंबर 2007 को भेजा गया चावल आज तक अपने गंतव्य तक नहीं पहुँचा है। इन 7 महीनों में सरकारी अमला क्या करता रहा भगवान जाने ? दिसंबर 28 2007 को राजधानी से मात्र 55 किलोमीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय महासमुंद से नागरिक आपूर्ति निगम ने 10 ट्रक चावल कोंटा (बस्तर) भेजा गया था। वो चावल कहाँ गया आज तक पता नहीं चल पाया। 28 दिसंबर से चावल के बारे में खोज ख़बर क्यों नहीं ली गई ये सवाल पूरे नागरिक आपूर्ति निगम को संदेह के दायरे में ला खड़ा करता है।
7 महीने बाद छत्तीसगढ़ राज्य आपूर्ति निगम महासमुंद के सहायक जिला प्रबंधक ने परिवहन ठेकेदार के खिलाफ महासमुंद थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है। इन 7 महीनों का हिसाब-किताब कौन देगा ? ये किसी को पता नहीं है। ऐसा ही एक मामला महासमुंद से कुछ किलोमीटर दूर स्थित बागबहरा का भी है। यहाँ से भी 19 से 29 जनवरी के बीच 16 ट्रक चावल बस्तर के दंतेवाड़ा जिले के लिए भेजा गया था न वहाँ ट्रक पहुँचे और न चावल। पता नहीं चावल और ट्रक को ज़मीन खा गई या आसमान निगल गया। 7 ट्रक चावल भोपालपट्टनम भेजा गया था उसका भी अता-पता नहीं है।
मामला खुल जाने के डर से सरकारी अफसर पुलिस की शरण में तो चले गए हैं, लेकिन क्या महीनों लंबी खामोशी इस बात की चुगली नहीं करती कि दाल में कुछ काला है। पुलिस ने भी इस मामले में ट्रांसपोर्टरों के खिलाफ तत्काल जुर्म दर्ज कर लिया है। आखिर उसे भी मोटे मुर्गे को हलाल करने का मौका मिल गया है। पुलिस ने इस मामले में ट्रांसपोर्टरों को फरार बताकर एक बार फिर 7-8 महीने तक जाँच चलने के प्रारंभिक संकेत दे दिए हैं। अब तक चुनाव हो जाएँगे अधिकारी बदला जाएँगे, पुलिसवालों का ट्रांसफर हो जाएगा, और हो सकता है वही ट्रांसपोर्टर नई फर्म बनाकर फिर से चावल के परिवहन का ठेका ले ले। ऐसा मैं हवा में नहीं कह रहा हूँ । इस मामले के एक आरोपी ठेकेदार पर लगभग 50 लाख रूपए के चावल की अफरा-तफरी का मामला महासमुंद जिले के ही बसना और पिथौरा थाने में पहले ही दर्ज है। उसी समय अगर उसकी गिरफ्तारी हो जाती तो वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लंबा चूना नहीं लगा पाता। बहरहाल इतना तो तय है कि ये घोटाला बिना सरकारी सांठगांठ के संभव नहीं है। महासमुंद से दंतेवाड़ा, कोंटा और भोपालपट्टनम सब 500 किलोमीटर से ज्यादा दूर नहीं है। इतने दूर के परिवहन के लिए 2-3 या ज्यादा से ज्यादा 4 दिन का समय काफी होता है। 4 दिन या सप्ताह भर बाद भी भेजे गए चावल के नहीं पहुँचने की ख़बर कैसे दबी रही ? क्यों सरकारी अफसर 7 महीने तक खामोश बैठे रहे ? ये सारे सवाल बहुत सारी अनकही बातों को सामने ला देते हैं। सब मिलीजुली कुश्ती है। सब मिल बांटकर लूट रहे हैं, गरीबों के हिस्से का अनाज। क्या अफसर क्या नेता और क्या ठेकेदार सभी बराबर के जिम्मेदार हैं। सब लाल हो रहे हैं अमीरी से और गरीब पीला हो रहा है भूखमरी से।
7 comments:
सही बात है। सब मिल बांट कर लूट रहे हैं गरीबों के हिस्से का निवाला। क्या नेता, क्या अफसर, क्या ठेकेदार, कोई किसी से कम नहीं।
"बेहद चौंका देने वाला मामला सामने आया है।"
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क्या वाकई चौंकाने वाला? मुझे तो चौंक नहीं लगती। शायद सरकारी नौकरी करते सेंसिटिविटी कम हो जाती हो।
पर आपको नहीं लगता कि यह चरित्र बहुत प्रेवेलेण्ट है!
अगर यही हाल रहा तो ये छ्त्तीसगढ को भी बिहार मे बदल देंगे । परंतु यह मुद्दा है सिस्टम का यहा सारा का सारा सिस्टम ही करप्ट है नीचे से लेकर टाप टेबल तक सभी को उनका हिस्सा पहुंच जाता है ।
bator vaikailpik media aap blog ka bahut saarthak sdupyog kar rahe hain.
chawal ke mamle me dhandli !
sachchi khabar .
khatre me islam nahi--www.hamzabaan.blogspot.com par padhen.
anilji maine aapka link de dia hai.aap bhi hamzabaan ka link de den to nawazish ho.
padhnewalon ko suvidha hoti hai.
लानत लानत ओर लानत इन सब पर.
धन्यवाद आप इन सब के मुह से नकाब उठा रहे हे.
बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप. सत्य कहने के लिए धन्यवाद. आपका परिचय पढ़कर भी अच्छा लगा.
देखिये सर, समस्या यही है कि जिन्हें नहीं चौंकना चाहिए, वही चौंक रहे हैं. जिनके पास चावल पहुंचना था और जिन्होंने चावल भेजा, वे नहीं चौंके. चौंके तो पत्रकार और आम जनता. सार्वजनिक वितरण इसी को तो कहते हैं. कहाँ गोदाम में चावल पहुँचता तो वहां की जगह फालतू में घेरता. आख़िर वितरण ही तो करना था, कर दिया.
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