Tuesday, December 16, 2008
दही बड़ा तो खाकर देख, खीर ले खीर ले बहुत टेस्टी बनी है।
एक माइक्रो पोस्ट। दही बड़ा खाकर देखिए बहुत टेस्टी बना है, खीर लीजिए खीर, बहुत ही बढि़या बनी है। कल्लू हलवाई खुद बना रहा है। अरे मुन्ना, इधर आ, जा जलेबी ला और सुन गरम पूडियां भी लाना। वो आग्रह किए जा रहा था और मैं गुस्से से तमतमाता जा रहा था। दूर खड़ा मेरा बहुत करीबी दोस्त देख रहा था। वो लगभग दौड़ते हुए आया और उस सज्जन को जो मेरे मित्र के स्टॉफ हैं, वहां से रवाना किया। वो शायद सब कुछ समझ गया था। गुस्से से तमतमाए चेहरे को भांपकर उसने कहा, चल ठीक है दुनिया में इस तरह के लोग भी होते हैं। मैं भी शांत होकर अनमने ढंग से भोजन करने लगा। हालाकि तेरहवीं का भोजन करना मुझे अच्छा नहीं लगता लेकिन कुछ घर ऐसे होते हैं जहां करना पड़ता है। मैं भोजन करते समय यही सोचता रहा कि जिस तरह से पकवानों की तारीफ हो रही है और खाने के लिए आग्रह किया जा रहा था, समझ में नहीं आ रहा था कि तेरहवीं का भोज है या विवाह का।
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26 comments:
यह विचित्र व्यवहार बहुत देखा है भारतीय समाज में।
हमारी संवेदनायें।
अनिल जी, किन किन को रोकेंगे, लेकिन हां दुख तो होता ही है। मेरे को तो इन सब प्रथाओं में भी...।
यही तो है भारतीय समाज की त्रासदी ...। जीते जी चाहे दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब ना हो । मरने के बाद पूरी पकवान की गारंटी....! ज़िंदा लोगों को नोंच नोंच कर खाने और मुर्दों का श्राद्ध मनाने की गिद्ध परंपरा है यहां ।
क्या उस सज्जन(?) ने उस मृतात्मा को जीवित रहते समय इतने प्रेम से खिलाया था? उससे पूछना चाहिये था…
भाई अनिल जी ! अब क्या बताये ? तेरहवीं का भोजन आजकल शादी ब्याह के भोजन से भी जोरदार बनवाया जाता है ! क्यों ? बस वही ऊंची नाक ! आखिर जीना हो या मरना हो , समाज के संसकार तो वही हैं !
राम राम !
ठंड रख भाई ठंड रख. तेरहवीं का भोज जश्न ही तो है.ग़लत बोल गये क्या हम? तो फिर क्षमा..
विचित्र व्यवहार!!!!!
aisa hi hota hai sir.. shamshaan vairagy shamshan ke baad hi shaan se nikal leta hai..
इसे हमारे १६ संस्कारों में से एक कहा जाता है। संस्कार है तो ठीक, पर इसे शोक नहीं, जश्न की तरह मनाया जाता है - शायद यह जताने के लिए कि ..चलो बला टली...
ये सवाल मैं एक बार नहीं बल्कि कई बार पूछ चुकी हूं....बाहर के साथ-साथ अपने घरवालों से भी..कि किसी की मौत पर इस भोज का क्या मतलब....लेकिन सब-समाज की यही रीत है- कहकर अपना पल्ला झाड़ लेतें हैं...
बहुत अफसोसजनक लगता है,ये सब
होता है जी अक्सर होता है....तारीफ भी की जाती है इस तरह मानों कोई कम्पटीशन हो तेरही मनाने में - अरे उसके तेरही में तो पूरा गाँव उलट गया था औऱ एक से एक पकवान बनवाया था पट्ठा.....और इसके यहाँ.....अक्सर इस तरह की बेढंगी घटनाये हो जाती है।
तेरहवीं के भोज में ऐसा व्यवहार बिल्कुल गलत है।
दही बड़े, खीर, जलेबी आदि शब्द पढ़ कर अपने आप यादों के साथ साथ मुँह में पानी आने लगा था, तेहरवीं का भोजन था पढ़ कर वह पानी भी सूख गया!
यह सब मेरे साथ मेरे पिता जी की तेहरवी पर हुआ था, मै तो भोज के खिलाफ़ था.... लेकिन जिस समाज मै हम रहते है, उस की बात भी कई बार अनमने मन से सुनानी पढाती है, करनी पढती है, लेकिन ऎसे लोगो को अलग लेजा कर डांट देना चाहिये, सब के सामने अपनी बेज्जती होती है, ओर बात भी ठीक है वोही बेटा जीते जी तो बाप का निरादर करता है, खाना समय पर नही देता, देता है तो ....... ओर मरने पर महा भोज...
धन्यवाद
कहीं ऎसे दुराग्रह मृतात्मा की ओर से ( आन बिहाफ़ आफ़ ) तो नहीं किये जाते ? अ गुड-बाय फ़ीस्ट !
yahi to rona hai.
मर्म को छूने वाली बात,
लोगों को समझना चाहिए.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अनिल जी,
कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी कफन में बेटे की जवान बीबी की मृत्यु बेला में बाप बेटे का उबला आलू खाते रहना तो गरीबी के कारण उनकी मजबूरी थी किन्तु आपने जिनका जिक्र किया है उनकी क्या मजबूरी है यह समझ के बाहर है।
ओह ये तेरहवीं का भोजन था क्या?????
Regards
aise logo se milkar koft ho aati hai. aapko to aapke mitr ne bacha liya kamse kam.
शर्मनाक!!!
अब क्या कहें . हर परम्परा शुरू तो अच्छे उद्देश्य के लिए ही होती है . पर समय के साथ उसका रूप बिगड जाता है, उद्देश्य कहीं खो जाता है और लकीर पीटने वाले लकीर पीटते रहते हैं .
भाई जी ये तो तेरहवीं की बात है लोग चौथा करके हलवाई बिठा लेते हैं.......
सही कहा दोस्त मै भुक्त भोगी हू अपने पिता की असमायिक मृत्यू के वक्त भी लोग तेहरवी वाले दिन जिस तरह भाव व्यक्त कर रहे थे बडी मुश्किल से मै हाथ बाध कर विनम्रता की मूर्ती बना खडा रहा. वर्ना दिल सालो को पीटने का कर रहा था.
विचित्र व्यवहार!!!
समय के साथ हर परम्परा का रूप बिगड जाता है!!!
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