Monday, January 26, 2009

पढता था स्कूल में, करता था इश्क़, नतीजा खुदकुशी

एकतरफ़ा प्यार मे नाकामी और हताशा मे जान दे देने के घटना राजधानी मे हुई। हालांकि इस ख़बर ने अख़बारो मे वो जगह नही पाई जो इसे मिलनी चाहिये थी मगर ये बहुत ही गंभीर घटना है जो समाज के लिये चिंता का विषय है।स्कूल मे पढने वाले छात्र पढाई-लिखाई छोड इश्कबाज़ी मे लगे हुये हैं।रात-रात् भर मोबाईल पर बात होती है। आखिर हो क्या रहा है।जिस परिवार ने असमय अपना बेटा खोया उसका दुःख-दर्द तो वो ही बता सकते हैं।

पढ-लिख कर भविष्य बनाने के सालो में अब कुछ युवा इश्क की रूमानी दुनिया मे खोने लगे हैं।उन्हे शायद इसका अंदाज़ा भी नही होता कि वे क्या कर रहे हैं?और क्या खो रहे हैं?राजधानी के एक स्कूल के छात्रावास मे रहने वाले क्रितेश ने जहर पीकर अपनी जान दे दी।क्या-क्या सपने देख रखे थे उसके माता-पिता ने?क्या सोच कर छात्रावास में रहकर पढा रहे थे?और हो क्या गया?

सवाल ये उठता है कि आखिर इसके लिये दोषी कौन है?क्या माता-पिता जो बच्चे को अपने पास न रखकर छात्रावास मे रखकर पढा रहे थे?क्या छात्रावास का प्रबंधन,जिसे छात्र की गतिविधियां नही पता थी? या वो स्कूल जंहा बच्चा पढना-लिखना छोड इश्क सीख गया?क्या उसके रूम मेट जिन्हे पता था कि वो रात-रात भर किसी से बात करता है?या वे दोस्त जो उसे ऐसा करने से रोकने की बजाय उसे प्रोत्साहित करते रहे हो?या हमारी फ़िल्मे और टेलिवीज़न ?कुल मिलाकर देखा जाय तो वातावरण ही ऐसा बनता जा रहा है कि इस तरह की घटनायें अब लोगो का ध्यान नही खींचती,उन्हे सोचने पर मज़बूर नही करती?

क्यों ज़रूरी हो गया है एक स्कूली छात्र या छात्रा के मोबाईल फ़ोन रखना?स्कूल से घर आने तक़ ऐसा क्या काम होता है,स्कूल से घर आकर ऐसी कौन सी एमरजेंसी होती है की उन्हे फ़ोन रखना ज़रुरी हो जाता है?आखिर घर वालो को भी तो खयाल रखना चाहिये कि उनका बच्चा कितनी बात करता है और किससे बात करता है?हो सकता है कुछ लोगो को ये सवाल दक़ियानूसी लगे मगर रास्ते मे हंसी-ठिठोली करते बच्चो को फ़ोन पर गपियाते देखो तो थोड़ा शक़ होता है।

इस बात को एकदम से खारिज़ भी नही किया जा सकता की बच्चे बिगड़ नही रहे हैं।स्कूली बच्चों को पान-ठेले पर खड़े होकर सिगरेट का धुंआ उड़ाते देखा जा सकता है।कुछ संपन्न परिवार के बच्चे थोड़ा और एडवांस होते है और बीयर तक़ पहूंच रहे हैं।ये सब कुछ दिख रहा है। हम शायद इन सब बातों से जान-बूझकर अंजान बनते हैं क्योंकी हमारा बच्चा उनमे शामिल नही है,ऐसा हम दिल को बहलाने के लिये सोचते हैं?जैसे क्रितेश के परिजन सोचते थे?

समय आ गया है हमे इस विषय पर गंभीरता से सोचना होगा कि हमारे बच्चे जा किस ओर रहे हैं।मोबाईल फ़ोन और बाईक का इस्तेमाल उसी काम के लिये किया जा रहा है जिसके लिये दिये गये हैं या फ़िर वो मौज-मस्ती का साधन बन गये हैं?बच्चे एक्स्ट्रा क्लास या कोचिंग क्लास के लिये निकल कर वही जा रहे या मटरगश्ती कर रहे हैं? ये नही कहा जा सकता कि हर बच्चे बदमाश हैं,मगर जंहा थोड़ा भी शक़ हो हमारा भी कर्तव्य है कि अपने बच्चे पर थोड़ी नज़र रखे वर्ना हमारे पास भी सिवाय पछताने की कुछ नही होगा।

22 comments:

Pratik Maheshwari said...

मैं आपकी बातों से बिल्कुल सहमत हूँ..
और यह मैं युवा वर्ग में होने के नाते बिल्कुल अच्छी तरह से समझ सकता हूँ....
मेरे कॉलेज में भी यही हाल है..
और मैंने गौर किया है की लड़कियां तो मोबाइल छोड़ती ही नहीं हैं.. शायद उनके लिए एक लाइफ-लाइन है मोबाइल..
पर लड़के भी कुछ कम नहीं हैं..
कॉलेज पढ़ाई छोड़कर, मात्र एक मिलने की जगह बन गई है..
रोक ऊपर से होनी चाहिए या फ़िर अपने मन से...
शायद दूसरा मुश्किल है.. पहले वाला ही ज़्यादा उपयुक्त है..
यह जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए शुक्रिया..

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी इस घटना ने बहुत कूछ सोचने पर मजबूर कर दिया, सब से ज्यादा गलती मां बाप की है, फ़िर आज के सिनेमा ओर टी वी की, हमे बच्चो को मोबाईल पहले दो देना ही नही चाहिये, अगर जरुरी है तो उस मोबाईल मे बहुत कम पेसे रखे, बस इतने ही कि बच्चा जरुरी फ़ोन ही कर सके घर पर, या फ़िर फ़ोन को लाक कर दे बस दो तीन ना० ही खोले एक घर का, एक पिता के मोबाईल या दफ़तर का, ओर बाकी जो जरुरी हो वो, बच्चो की जेब खर्ची का भी ध्यान रखे, दुसरे बच्चे क्या करते है किस कार या वाईक पर आते है इस बारे मत सोचो, ओर बच्चे को शुरु से ही कमाना सीखाओ.
आज कल के बच्चे आजादी के नाम पर क्या क्या करते है? मां बाप कॊ बच्चो का दोस्त बन कर पता करना चाहिये, ओर उन्हे अच्छा बुरा समझाना चाहिये.
धन्यवद

महेन्द्र मिश्र said...

प्रस्तुति के लिए आभार...
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं सहित

Arvind Mishra said...

अफसोसजनक ! शायद कुछ लोगों में आत्महत्या के जीन होते हों .इशक वगैरह तो कुदरती वयवहार है ,मगर सभी तो आत्महत्या नहीं करते -इस पहलू पर भी सोचिये पुद्स्कर जी !

Anonymous said...

क्यों ज़रूरी हो गया है एक स्कूली छात्र या छात्रा के मोबाईल फ़ोन रखना?

इस बात पर यहाँ भी बहस छिड़ी थी लेकिन नतीजा कुछ निकला नही क्योंकि आधे पक्ष में थे और आधे विपक्ष में,

Udan Tashtari said...

विचारणीय तथ्य है मगर जिन्हें, याने अभिभावकों को, विचारना है वो स्वयं में इतने व्यस्त हैं कि देखकर मैं अचंभित रह जाता हूँ. आखिर कैसे वो बच्चों के प्रति तने निश्चिंत और उदासीन हैं.

आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

Ashish Maharishi said...

गणतंत्र दिवस पर आईए एक बेहतर लोकतंत्र की स्थापना में अपना योगदान दें...जय हो..

Vineeta Yashsavi said...

हैं।मोबाईल फ़ोन और बाईक का इस्तेमाल उसी काम के लिये किया जा रहा है जिसके लिये दिये गये हैं या फ़िर वो मौज-मस्ती का साधन बन गये हैं?बच्चे एक्स्ट्रा क्लास या कोचिंग क्लास के लिये निकल कर वही जा रहे या मटरगश्ती कर रहे हैं? ये नही कहा जा सकता कि हर बच्चे बदमाश हैं,मगर जंहा थोड़ा भी शक़ हो हमारा भी कर्तव्य है कि अपने बच्चे पर थोड़ी नज़र रखे वर्ना हमारे पास भी सिवाय पछताने की कुछ नही होगा।

behad gambhir prashna uthaye hai apne.

Unknown said...

गणतंत्र दिवस की आपको ढेर सारी शुभकामनाएं.

दिनेशराय द्विवेदी said...

अनिल जी, मेरा मानना है कि वयस्क होने तक बच्चों को माता-पिता का पूरा संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। लेकिन माता पिता अपने बच्चों को छात्रावासों में छोड़ देते हैं जहाँ वे इस संरक्षण से वंचित हो जाते हैं। प्राचीन काल में बच्चे गुरुकुल जाते थे लेकिन वहाँ उन्हें अपने गुरू का माता-पिता से भी अधिक संरक्षण प्राप्त होता था। लेकिन अब गुरुकुल तो हैं नहीं और विद्यालय तथा छात्रावास व्यावसायिक दृष्टिकोण से चलाए जा रहे हैं। सरकारी छात्रावासों के संचालक भी नौकरी के ही दायित्व निभा रहे हैं।
केवल कुछ संस्थागत छात्रावास या आवासीय विद्यालयों में बच्चों को पूरा संरक्षण देने की परंपरा शेष रह गई है।
यह हमारी विडम्बना ही कहिए कि हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को संरक्षण देने में सक्षम नहीं रह गई है।

प्रदीप मानोरिया said...

गणतंत्र दिवस पर आपको शुभकामनाएं .. इस देश का लोकतंत्र लोभ तंत्र से उबर कर वास्तविक लोकतंत्र हो जाएऐसी प्रभु से कामना है

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत विचार्णिय बात है.


गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎं......

रामराम.

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर.... गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...!

डॉ .अनुराग said...

असंतुलित तरीके से आर्थिक तौर पर बँटा समाज .... समाज का बदलता आचरण .....एकल परिवार .....सुविधायों का इश्तिहारी संस्करण ....कम समय में सब कुछ पाने की इच्छा .....बहुत कुछ है इसके पीछे ....वैसे भी ये समस्या पूरे समाज की है इसे हम केवल आरती आधार पर नही बाँट सकते

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

मां-बाप पर समय नहीं है, संस्कार जब स्वयं ही नहीं सहेज पाये तो बच्चों को कहां से देते.

Gyan Dutt Pandey said...

कुछ युवाओं को देख कर लगता है कि मोबाइल कान की संरचना का जैवीय अंग है!

अनिल कान्त said...

इस घटना और ऐसी बहुत सी घटनाओं को रोकने का एक कदम यह भी है की माता पिता अपने बच्चो का ख्याल रखें और बिना कारन के मोबाइल जैसी चीज न दें ........उनकी परवरिश अच्छी करें ...



अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

विष्णु बैरागी said...

होस्‍टल तो अब अपने आप में सम्‍पूर्ण व्‍यवसाय हो गया है। वहां मैनेजर मिलेंगे, बच्‍चों के संरक्षक नहीं।
यह संकट प्रत्‍येक परिवार का है। बाढ आई हुई है। बचाव के प्रबन्‍ध भी हमें अपने-अपने घर में ही करने पडेंगे।

Anwar Qureshi said...

और भी ग़म है ज़माने में मोहोब्बत के सिवा ....ये समझना अभी बाकी है

Puja Upadhyay said...

एक खास उम्र होती है जब अनुशाषण जरूरी होता है क्योंकि इस उम्र में सही ग़लत की सही पहचान नहीं होती, अनुभव कम होता है और जिज्ञासा अधिक. ऐसे में अगर बच्चे घर पर रहे तो ठीक है क्योंकि वहां उन्हें अच्छा बुरा समझाने के लिए अभिवावक होते हैं. इस बात के लिए मोबाइल या बाकी हमउम्र बच्चो को दोष देना कहाँ तक सही है. और रही इश्क की बात तो वह तो इस उम्र का एक ऐसा हिस्सा है जिसे कोई भी नकार नहीं सकता. हाँ इसके बाद के पहलुओं को समझने में भले बाकी लोग मदद कर सकते हैं. खुदखुशी को आप सीधे सीधे इश्क का नतीजा क्यों कह रहे हैं ये तो कई बार ख़राब मार्क्स आने के डर से भी बच्चे कर लेते हैं. जरूरत थोड़े से प्यार, अपनेपन और आपसी समझ की है, तभी ऐसी घटनाओं को रोका जा सकेगा.

Anonymous said...

anil ji aane sahi likha hai .. aaj ke jo youngsters hai .. vo apne parents ko dhoka nahi balki khud ko dhoka de rahe hai .. ye unhe nahi malum ... lekin aapne sahi subject chuna hai ..

NIRBHAY said...

is masle par ek sher jo jagjit singh ne apne gazal me gaya hai yaad aata hai.

mod hota hai jawani ka ruk ke samhalne ke liye,
par log is mod par aa kar phisalten kyon hai.

har poorani pidhi nayi pidhi ki galtiyan nikalti hai. hamne bhi suna hai apne samay "Itna Bada Bell Bottom", "ab kee cinema me kya rakha hai, Mar Dhad, heroine ki tight blouse unnat urojon ko dekhne cinema dekhane jate hain", " beta hamare samay me hamane KANDEEL me padhai kar is Jagah par pahunche hai", tumko light hai sab hai tum log aadhunik ho gaye ho. Hum bhi wahi kar rahen hai, apne sanskar ko aage nibhate chale ja rahe hai.
Abhi is samay vishesh roop se dekha gaya hai kee khud guardians agar unke bachhon ko master mar deta hai school me to wohi master ko marne chale jaten hai.
Jawan bachhon ko viprit paristhiti me sthir rahne ki shiksha dene ka kartavya guardiaans bhool gayen hai.
Are raho bindaas, TU NAHI AUR KOI SAHI. maa baap ki jimmedari jawan hote bachhon par jyada rahna chahiye. is tough competition ke dour me unko depression se bachana chahiye.