शायद इसी लापरवाह रवैये का नतीजा है जिसके दुष्परिणाम अब सामने नज़र आ रहे हैं।अभी तो शुरूआत है।पृथ्वी गर्म हो रही है,तापमान बढ रहा है,जलवायु मे परिवर्तन हो रहा है,ध्रुव पिघल रहे है।होंगे हम तो नही उबल रहे हैं ना,हम तो नही डूब रहे हैं ना।अभी बहुत टाइम है।साले पश्चिम वाले डराते है, बकवास करके। और भी दुनिया भर की बकवास कर लेते हैं हम,जब इस गंभीर विषय पर कोई बात करना चाहता है तो।बहुत ज्यादा हुआ तो उस पर किसी कमाऊ एन जी ओ का एजेंट होने का आरोप मढ दो और फ़िर आईपीएल के सट्टे,ललित मोदी और थरूर की जंग,चीयर गर्ल्स उपयोगिता के बहाने उनकी मांसलता और थरूर के बहाने नेताओं की रंगिनियों पर घण्टो बहस करने मे व्यस्त हो जाते हैं,मैं भी उन लोगों मे शामिल हूं।
लेकिन शायद आज ऐसा नही कर पाऊंगा।क्यों?बताया ना,शरद कोकास के भेजे संदेश ने सोचने पर मज़बूर कर दिया है।आज सुबह-सुबह शरद का संदेह मिला पृथ्वी दिवस पर।ऐसा नही है कि मुझे इसके बारे मे पता नही था।पता था,वो भी इसलिये,क्योंकि मुझे इस दिवस पर आयोजित एक प्रदर्शनी का फ़ीता काटना था।खैर वो तो मामला औपचारिकता का था जो अब शायद औपचारिक नही रहा क्योंकि शरद की ये पंक्तियां बहुत कुछ कह रही है,मुझे अंदर तक़ हिला दिया है,
स्त्री सहती है जितनी प्रसव-पीड़ा/
उतनी सहती है पृथ्वी भी/
बस पृथ्वी की चीख हमे सुनाई नही देती।
ईमानदारी से कहूं तो इससे पहले इस विषय पर इतनी गंभीरता से कभी नही सोचा मैने।भू-विज्ञान मे पोस्ट ग्रेज्यूयेट होने के कारण इस विषय की गंभीरता को समझता तो ज़रूर हूं,मगर आसपास जो घट रहा है उस पर सतही तौर पर बहस करने और दो-चार कागज़ काले करने के अलावा आज-तक़ कुछ किया ही नही और फ़िर इससे ज्यादा कर भी क्या सकता हूं मैं।अधिकांश लोग मुझे लगता है ऐसा ही कुछ करते है वरना धरती माता का इतना बुरा हाल नही होता।उसके वस्त्र जंगल रोज़ काट रहे है हम।उसे नंगा करने मे क्या कोई कसर छोड़ी है इंसानी लालच ने।पहाड़ो को फ़ोड़ कर खनिज़ लूट रहे है और नदियों की भी हत्या करने मे चूक नही रहे हैं हम।हमारे शहर की जलप्रदायनी खारुन नदी की दुर्दशा तो यही कह रही है।कहने को बहुत कुछ है मगर पूरी राजधानी को पानी पीलाने वाली खारून नदी का हाल आपको दिखा देता हूं।आज शायद फ़ीता काटते समय हाथ कांपे,फ़ोटू खिंचवाते समय चेहरे पर थोड़ी शर्म नज़र आये और फ़िल्मी डायलाग मारते समय ज़ुबान थोड़ा लड़खड़ाये।
20 comments:
"स्त्री सहती है जितनी प्रसव-पीड़ा/
उतनी सहती है पृथ्वी भी/
बस पृथ्वी की चीख हमे सुनाई नही देती।"
सुने तो तब जब सुनना चाहे!इस और कोई ध्यान ही नहीं देता!बहुत अच्छी और विचारणीय पोस्ट के लिए धन्यवाद है जी!
कुंवर जी,
काश....
सोचने पर मजबूर करने वाला सन्देश है यह...क्या इस तरह हमने सोचा है कभी..?..सब कुछ रस्मअदायगी हो गयी है...जरूरत है गंभीरता से हर एक को अपने हिस्से का छोटा सा हरियाली का एक टुकड़ा बनाने या उसे बरकरार रखने का प्रण लेना.
सामयिक चिंतन! खारून नदी के इस हाल को देख दुःख हो रहा है.
जागरूक करने वाली अच्छी पोस्ट....सच है की पृथ्वी का रूदन हम नहीं सुन पाते...
पृथ्वी गर्म हो रही है,तापमान बढ रहा है,जलवायु मे परिवर्तन हो रहा है,ध्रुव पिघल रहे है।होंगे हम तो नही उबल रहे हैं ना,हम तो नही डूब रहे हैं ना।अभी बहुत टाइम है।साले पश्चिम वाले डराते है, बकवास करके।
अत्यंत विचारणीय और शाश्वत प्रश्न खडा है सामने.
रामराम
नालायक ओलाद से मां ओर क्या उम्मीद कर सकती है, हम ने जंगल ही नही, इस की नदियो को, खेती लायक भुमि को ओरिस के सोंदर्य को बर्वाद कर के रख दिया, अब इस का फ़ल भी हमीं को भुगतना है
अब चीखती नहीं, काँप जाती है धरती ।
अनिल ,आज पृथ्वी दिवस प्रस्तुत आपका यह चिंतन इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि इसमें एक सही चिंता शामिल है । हम मनुष्यों को बहुत सारी बेकार की बातों पर चिंता करने की आदत होती जा रही है और इन व्यर्थ की चिंताओं और बह्सों के चलते हम् अपने सामाजिक सरोकार भी भूलते जा रहे हैं ।
मुझे ज़्यादा कुछ नहीं कहना है इसलिये कि आप जैसे साथियों की तरह मैं भी कर्म में विश्वास रखता हूँ । इन गर्मियों में मैने संकल्प लिया है कि अपने आसपास के किसी भी पौधे को ,पशु को और पक्षियों को पानी की कमी की वज़ह से मरने नहीं दूंगा मै रोज सुबह शाम बाल्टी लेकर निकलता हूँ और पूरी स्ट्रीट के पौधों को पानी देता हूँ ।सड़क चलते नलों की टोटियाँ बन्द करता हूँ ।आनेवाले संकट पर लोगों से बात करता हूँ । आज से कुछ साल पहले किसी ने नहीं सोचा था पानी की इतनी कमी हो जायेगी । लोग अब भी पानी की बर्बादी के प्रति सचेत नहीं है । सत्ता भी अब सारी ज़िम्मेदारी लोगों पर डालकर ही प्रसन्न है । इसी तरह एक दिन शुद्ध हवा की भी किल्लत होने वाली है ।
इस कविता का इतने महत्वपूर्ण रूप से उल्लेख करने के लिये मै आभारी हूँ। हममें से कुछ लोग भी यदि पृथ्वी की इस वेदना को समझ सकें तो हम अपने मातृ ऋण से थोड़ा बहुत मुक्त हो सकते हैं । पृथ्वी की सेवा करना सचमुच अपने दूध का कर्ज़ उतारने से भी ज़्यादा बड़ा काम है ।
शरद कोकास बहुत संजीदा और संवदनशील ब्लॉगर हैं। मैं अपने को बहुधा उनके पाले में खड़ा पाता हूं।
बहुत सही पंक्तियाँ लिखी हैं शरद जी ने ।
आपकी चिंता सबके लिए चिंता का विषय है।
यदि अभी नहीं संभाला तो ऊपर वाला ही मालिक है।
अनिल भाई माँ की चीखें हर पल सुनाई देती हैं। हम हैं कि सुनते ही नहीं हैं। ट्यूबवेल में हर साल पानी नीचे उतर जाता है। कुएँ सूख गए हैं। पेड़ खड़ा खड़ा अचानक सूख जाता है। हमने अपने कान बहरे कर लिए हैं।
bilkul sach kaha bhaia.. behtar hai hum is disha me kuchh karen.. kam se kam khud jaagruk hon aur 4 aur logon ko karen.
हम सुनना नहीं चाहते
इसलिए सुन नहीं पाते
हमें सुनाई देती हैं आहटें
नोटों की, होती है महसूस
गर्मी नोटों की, पेड़ की छाया
से हमें कोई सरोकार नहीं
पृथ्वी की चीख से आज
किसी को भी चढ़ता बुखार नहीं।
यदि हम यही याद रख लें कि हम ले क्या रहे हैं और दे क्या रहे हैं तो इस समस्या का हल निकल आएगा.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
केवल एक दिन मना लेने से हम किसी भी समस्या का हल नहीं कर सकते। हमने धरती को माँ मानना बन्द किया और उसको भोगना प्रारम्भ कर दिया। तब ऐसा होना ही था।
Lalit modi ke saath....paryavaran mantri ki bhi Income tax jaanch karayee jaye..
बहुत उम्दा चिन्तन दिवस विशेष पर-पोस्ट पसंद आई.
इस समस्या को हम लोग महत्व न देकर भयंकर भूल कर रहे हैं ! सामयिक चिंतन के लिए शुभकामनायें !
देर से पढ़ पाया इस पोस्ट को
एक बिंदास स्वीकारोक्ति की बधाई आपको
हम सभी दोषी हैं मानता हूँ
लेकिन कुछ मानवीय प्रवृत्तियों की भेंट चढ़ गई है प्रकृति की अनुपम देनें
जिस दिन वह ज़वाब देगी इस अत्याचार का
हम सब भोगेंगे
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