Monday, February 7, 2011

क्या नक्सलियों द्वारा पांच पुलिस वालों को अगवा कर लेना मानवाधिकारों का हनन नही है?

कहने को बहुत कुछ है मगर एक छोटा सा सवाल जो छ्त्तीसगढ के कथित क्रांतिकारियों और उनकी पैरवी करने वाले कथित मानवाधिकारवादियों की पोल खोलने के लिये काफ़ी है।पिछले 25 जनवरी से यंहा के नक्सलियों द्वारा पांच जवानो को अगवा कर लेने की खबर है।आज तक उनकी कोई खोज-खबर नही मिल पाई है।क्या पांच-पांच जवानो का लापता हो जाना या उन्हे अगवा कर लेना नेशनल न्यूज़ नही है?पता नही क्यों इस प्रदेश को और यंहा हो रहे नक्सलियों के अपराध पर राष्ट्रीय मीडिया खामोश बना रहता है?उसकी खामोशी टूटती है जब किसी फ़र्ज़ी मानवाधिकारवादी को पुलिस गिरफ़्तार कर लेती है?या किसी मुठभेड़ मे जब कोई दुर्दान्त नक्सली मारा जाता है तब?तब वे उसे पत्रकार या समाजसेवी या मानवाधिकार वादी बताने मे कोई कसर नही छोड़ते और उनके सुर मे सुर मे मिला कर रोते हैं विदेशी सहायता से चलने वाले पांच सितारा एनजीओ।
पुलिस को हाल ही यंहा नक्सलियों से मुठभेड़ के दौरान विदेशी सहायता से चलने वाले एनजीओ के डाक्टरों की पर्चियां विदेशी दवाये और सामान बरामद हुआ है।ये सबूत है उन रूदालियों का इस खूनी संघर्ष में नक्स्लियों को भरपूर समर्थन देने का।ज़रा सी बात में हाय-तौबा मचा देने वाली संस्थायें पांच-पांच जवानों के अपहरण पर खामोश हैं।अब उन्हे उन अगवा जवानो को छोड़ने की अपील करने की फ़ुरसत तक़ नही मिल रही है।ये वही संगठन है जो अदालत द्वारा सज़ा सुनाये जाने के बाद एक सजा-याफ़्ता को छुड़ाने के लिये देश भर में प्रदर्शन करने से नही चूके।ऐसा करके उन्होनें अदालत या न्याय प्रणाली का जाने-अन्जाने अपमान भी किया मगर उन्हे शायद इस बात की परवाह भी नही थी क्योंकि वे तो उस शख्स के समर्थन मे आगे आये थे जिसकी अदालत में चल रही कार्रवाई देखने उनके विदेशी आका यंहा आये थे।
बताईये 13 दिनो से पांच जवानों की कोई खबर नही मिल पा रही है।क्या गुज़र रही होगी उन अगवा पांच जवानों के परिवार वालों पर।आखिर वे भी हाड़-मांस के इंसान है और उनकी भी सामाजिक ज़िम्मेदारियां और रिश्तेदारी है?क्या ये मानवाधिकार वादियों को नही लगता कि गलत है?क्या गुज़र रही होगी एक बीबी पर,एक मां पर एक बहन पर,एक भाई पर एक बाप पर एक बेटे या बेटी पर?क्या मानवाधिकार वादियों को ये नही पता कि पुलिस वालों के भी बेटे-बेटियां होती है?उनकी भी बीबी-मां और बहन होती है?उनके घर में भी उतना ही दुःख का सन्नाटा पसरा रहता है जितना उनके हिसाब से किसी नक्सली के मारे जाने पर फ़ैलता है?
पता नही इस देश मे मानवाधिकार के दोगली परिभाषा कब बदलेगी?कब एक नक्सली और एक पुलिस वाले के मानवाधिकार बराबर नज़र से देखें जायेंगे?पता नही कब उन पांच अगवा जवानों का पता चलेगा?पता नही कब मामूली सी रकम पर होने वाले अपहरण पर दिन भर सनसनीखेज़ ड्रामा दिखा कर टीआरपी बटोरने की होड़ मे लगे नेशनल न्यूज़ चैनलों की नज़र इस खबर पर भी पड़ेगी और इसे लगातार दिखा कर वे दबाव बना कर उन जवानो की रिहाई में अपना सक्रिय योगदान देंगे?पता नही कब? पता नही कब?पता नही कब?

11 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

is muhim ko ab Dilli se chalana padega

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

देश विरोधाभासों और भासियों का है... सच बोलने, सुनने और करने को कोई तैयार नहीं..

प्रवीण पाण्डेय said...

मीडिया को इसमें कुछ भी चटपटा नहीं मिल पा रहा है।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

नक्सली मानव ही नही तो मानवाधिकार दायरे मे नही आते .यह सोच होगी मानवाधिकारियो की .आतन्क के सबसे बदे हमदर्द तो यही मानवाधिकारी है

संजय बेंगाणी said...

पत्रकार या समाजसेवी या मानवाधिकारवादी यह सब तो मुखौटे है, अन्दर से तो सभी....

Vinay Pusadkar said...

loktantra parse uthat bharosa, prasar madhyamo par se uthata vishwas, badhati huyi mahengaai, or berojgari ki samasya ka hal ham log nikal sake, to nakshalwad khada hi nahi hoga.

Vinay Pusadkar said...

i like it.

Vinay Pusadkar said...

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Vinay Pusadkar said...

please tell me how to write comment in hindi?

Anil Pusadkar said...

please use hindi tool

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

कायदे कानून उन लोगों के लिए हैं जिन्हे नागरिक कहते हैं। नागरिक और नक्स्ली में अंतर है कि नै :)