ज़िंदा रहने के लिये नौकरी छोड़ना ज़रूरी है?ज़िंदा रहने के लिये नौकरी करना?ये सवाल सामने खड़ा है उन पांच जवानो के जिन्हे कल नक्सलियों नें नौकरी छोड़ने की शर्त पर रिहा किया। नकस्ल प्रभावित छत्तीसगढ के बस्तर ज़िलें में नक्सलियों ने अपनी अदालत,जनसुनवाई में अगवा किये गये पांच जवानों को नौकरी छोड़ने की शर्त पर रिहा करने का फ़ैसला सुनाया।वंहा हज़ारों की संख्या मे ग्रामीणों के साथ-साथ जवानों की रिहाई के लिये मध्यसतता करने वाले अग्निवेश के अलावा मानवाधिकार के जाने-माने राष्ट्रीय स्तर के कई पैरोकार-ठेकेदार मौज़ूद थे।उनके सामने नक्सलियों ने जवानों को नौकरी छोड़ने की शर्त पर ज़िंदा छोड़ा।अब सवाल ये उठता है कि ज़िंदा रहने के लिये नौकरी छोड़ना ज़रूरी है?ज़िंदा रहने के लिये नौकरी करना?
क्या कोई नौकरीपेशा इंसान इस ज़माने में बिना कोई काम किया जीवनयापन कर सकता है?क्या कोई नौकरीपेशा बिना नौकरी किये अपना परिवार पाल सकता है?क्या वो बिना नौकरी किये ज़िंदगी की गाड़ी खींच सकता है?अगर उसे ज़िंदा रहने के लिये नौकरी की ज़रूरत नही होती तो क्यों जाता वो जान हथेली पर लेकर बस्तर मरने के लिये?आखिर वो नौकरी करता ही क्यों,अगर उसका गुज़ारा नौकरी के बिना हो सकता था,तो?
समझ में नही आता इतने बड़े खुद को स्वामी कहने वाले विद्वान,अग्निवेश के मन मे ये सवाल क्यों नही उठा?मानवाधिकार वादियों की नेता कविता श्रीवास्तव,गौतम नौलखा,वी सुरेश,हरीश दीवान आदि-आदि के मन में क्यों नही उठा?उनके मन में तो ये सवाल भी आना चाहिये था कि बंदूक की नोक पर किसी की नौकरी छीनना मानवाधिकार का हनन है?शायद उन्हे ये पता ही नही होगा कि नौकरी छोड़कर कोई भी इंसान अपना परिवार नही पाल सकता है,ज़िंदा नही रह सकता है?खैर ये तो वही जान सकता है जो छोटी-मोटी नौकरी करता हो उन पुलिस जवानों जैसी।जिसे महिने में एक बार मुट्ठी भर रूपये मिलते हों महीने भर ज़िंदगी दांव पर लगाकर बारूदी सुरंगों से अटे पड़े बस्तर के जंगलों में।
उन लोगों को क्या मालूम होगा ज़िंदा रहने के लिये नौकरी कितनी ज़रूरी है,जिन्होने कभी नौकरी की ही ना हो?जिन्हे नेतागिरी के लिये हर महीने मोटी रकम मिल जाती हो?जिन्हे बेवज़ह बकवास करने और सरकारों(खासकर भाजपा)के खिलाफ़ जातिवाद से लेकर अनाप-शनाप आरोप लगाने पर विदेशी धनराशियों पर फ़ल-फ़ूल रहे एनजीओ से चंदा मिलता हो?उन लोगो को कैसे पता हो सकता है नौकरी के बिना ज़िंदा रहना,और नक्सलियों की कैद में रहना एक समान ही है?
चलिये जाने दिजीये ये नौकरी-फ़ौकरी की मीडिल और लोअर मीडिल क्लास बातें।एसी कमरों मे बैठ कर गरीबी और आम आदमी की हालत पर टेसूये बहाने वाले उन एलिट लोगों को ये तो बताना चहिये कि नक्सलियों की कैद से रिहा होने के लिये अब उन जवानों को करना क्या चाहिये?क्या उन्हे भी बंदूक उठाकर जीवनदान देने वालों के साथ हो जाना चाहिये?क्या उन्हे रिहाई के लिये दलाली करने वालों का झण्डा थाम लेना चाहिये?ऐसा क्या करना चाहिये कि उनके बच्चों की स्कूल समय पर पट सके?बूढे मां-बाप के मेड़िकल से दवा खरीद सके?बहन-भाई की शादी के लिये बारात का इंतजाम कर सके?उसकी रिहाई के लिये दिन-रात आंसू बहाते और हर किसी से उसकी रिहाई की गुहार लगाते-लगाते सूख चुके सकी पत्नी के ओंठो पर छोटी सी मुस्कान लाने के लिये वो साड़ी खरीद सके?
इन सब के लिये लगता है रूपया,जो उन्हे मिलता था नौकरी से,और आप उन्से कह रह नौकरी छोड़ कर ज़िंदा रहो?ये कैसे संभव हो सकता है?बिना सांस लिये ज़िंदा रहने की शर्त के समान है और अफ़सोस की बात तो ये है कि पांच पुलिस वाले के मानवाधिकार का हनन हुआ भी तो मानवाधिकार वादियों के ठेकेदारों के सामने।पता कभी आईना देखते समय ये खुद से बात करते भी हैं या नही?कभी आईना उन्हे चिढाता भी या नही?कभी खुद की आंखों में आंखे डालते समय नज़रे झुक जाती है या नही?
11 comments:
कानून का राज दिखाई देता है यहां किसी भी स्तर पर? कहीं पुलिस-अफसर-नेता-उद्योगपतियों का तो कहीं नक्सलियों का...
Dear Anil Bhai,
Your pen still have the fire. You must write in a more popular media. So that your thoughts can reach to most of the society.
Regards.
vijay Jadwani
जान बख्श दी, यही क्या कम है। मानवों को उनका अधिकार दे दिया। संवेदनशीलता तो इसे ही कहेंगे न।
jaan bachi, lakho paye. phir bhi majaburi hai.
पुलिस में भरती हुए थे तो यह तो मालूम ही था कि एक दिन किसी न किसी मोर्चे पर नक्सलियों से भिडना है और उस मोर्चे पर जान भी जा सकती है। वैसे मरना तो सबको एक दिन है लेकिन वरदी वालों को ही यह सम्मान मयस्सर होता है कि उनके मरने के बाद उनकी लाश पर देश की शान तिरंगा लिपटाया जाता है। फिर इस तरह नक्सलियो के सामने घुटने टेककर बचकर निकल आने का कारण समझ नहीं आता। अरे उनका ख्याल क्या किसी को नहीं आता जो नक्सल मोर्चों पर गए और वापस आया उनका निर्जीव शरीर।
छत्तीसगढ ही नहीं देश के कई अलग अलग प्रांतों के रहने वाले जवानों ने छत्तीसगढ में नक्सलवाद का खात्मा करने के लिए यहां कदम रखा लेकिन उनके घरों में ताबूत में बंद कर उनके शरीर को भेजना पडा।
सीआरपीएफ के, पुलिस के, आईटीबीपी के जवान खत्म हुए, वे तो चले गए उनके परिवार के मानवाधिकार का क्या हुआ।
ये तो बचकर आ गए, आगे कुछ भी कर लेंगे, जिंदा तो हैं।
आज इस देश की कानून व्यवस्था और सुरक्षा पर एक बड़ा ज्वलंत प्रश्न चिन्ह है यह घटना। एक प्रजातांत्रिक देश की सरकार अक्षम है । एक अनाम सा व्यक्ति जो खुले आम घूम रहा है , उसके देशद्रोहियों से संपर्क हैं वह एक सौदा करवाता है 5 जानो का ।पता नहीं सौदा कितने में हुआ लेकिन जो कश्मीर में हुआ वही व्यवस्था छत्तीसगढ़ में भी कायम हो रही है लगता है ।
कुछ समय पहले इस व्यक्ति के बयानो पर प्रश्न चिन्ह उठे थे ।
हत्यारों के दलों को मानवाधिकार से क्या?
साथ ही प्रश्न यह भी उठता है कि आज़ादी के 6 दशक बाद जब जनता की चुनी सरकारें अगर अपने पुलिसकर्मियों को भी सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती तो आम जनता की रक्षा क्या खाक करेंगी? किस लिये है सरकार/प्रशासन/मंत्रियों, और आइएऐस/पीसीऐस का इतना बडा तामझाम?
shai kaha sir
sahi kaha sir
.....हमें तो इन मानवाधिकार वालों पर शुरू से ही शक रहा है ...अश्रद्धा भी रही है इनके सिद्धांत पार्शियल हैं ....और सिद्धांत खोखले .....कई नकाबों से ढके हुए. इनकी ज़रूरत ही क्या है .....?
...............सफ़ेद हाथी कहीं के
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